
प्रकति हमें जीवन देती है। हमारा मन जब भी भावनाओं के ज्वार में बहने लगता है तो प्रकति हमारा सम्बल बन के सहारा देती है। श्री अवतार सिंह की कल्पनाओं में व उनके लेखन में प्रकति अपने अदभुत रूप में समाहित हो जाती है। आइये, उनकी लिखी कविता व गीत का आनंद प्राप्त करते है।
गीत | जीवन एक खेल इसे मैं खेलता चला जाता हूं
जीवन एक खेल इसे मैं खेलता चला जाता हूं,मेरा गीत सुनो न सुनो,
मैं बोलता चला जाता हूं तुम्हें जीत के साथ छोड़कर, मैं हार को समेटकर तुम्हें इतराता देखकर,
मैं मुस्कुराता चला जाता हूं..!!
की हुई गलतियों पर खुद को टोकता चला जाता हूं जिस मोड़ से धोखा मिला,
वो राह छोड़ता चला जाता हूं समय बदलता रहता है, दिल में दोहराता चला जाता हूं। तुम्हें इतराता देखकर,
मैं मुस्कुराता चला जाता हूं..!!
जो प्यार से मिला मैं अपने साथ जोड़ता चला जाता हूं
मुझे निराश करने वाली दोस्ती को तोड़ता चला जाता हूं
अपना दुख छुपाकर मस्ती में बड़बड़ाता चला जाता हूं
तुम्हें इतराता देखकर, मैं मुस्कुराता चला जाता हूं..!!
मैं पेड़ की तरह उगने का प्रयास करता चला जाता हूं
मौसम के हिसाब से फलता या झरता चला जाता हूं नियति मुझे जला दे
मैं राख को उड़ाता चला जाता हूं
तुम्हें इतराता देखकर, मैं मुस्कुराता चला जाता हूं..!!
कविता| स्त्री का रूठ जाना
कविता – स्त्री
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स्त्री का रूठ जाना
स्त्रीत्व की संतुष्टि है,
बहस भी एक संवाद है
कलह में भी एक रस है
स्त्री को सुख देती है
महत्त्वपूर्ण होने की भावना
पुरुष से अहमियत पाना
पुरुष एक प्रमाण है या मेडल
पर पुरुष का मौन चुनौती है,
स्त्री जानती है इस बांध को तोड़ना
अपनी जिद से, किसी टिप्पणी से
कभी किसी छोटी बात पर लड़कर
स्त्री बना ही लेती है पुरुष को पार्टनर
स्वयं रचे हुए अवास्तविक युद्ध के लिए
पुरुष का समय चुरा लेती है
लड़ाई झगड़े के रूप में
पुरुष को खुद में खपा लेती है
पुरुष बुद्धि और तर्क प्रयोग करता है
समझाता है, बहलाता है
पर स्त्री का आंसू रूपी
ब्रह्मास्त्र देखकर हार जाता है
स्वयं पिघल जाता है हिमालय की तरह
और स्त्री की समवेत आकांक्षाओं को
अपने में समेट कर आकार दे देता है।
कविता – पिता और सर्दियां
पिता सर्दियों की धूप जैसे थे
कुछ नरम, कुछ गरम
सुकून देती हुई तपिश की तरह
उनींदा कर देने वाले अहसास के जैसे
सुनहरी-दुपहरी में बैठे रहने की
एक ख्वाहिश सी बिना कुछ किये,
एक गुनगुना सम्मोहन जैसे भीतर
रोम रोम में समाता चला जाये।
बचपन में मौसम नहीं दुखते
बच्चों के सुख-दुख कम ही होते हैं
सर्दी, गर्मी, बरसात बुरे नहीं लगते,
उस जमाने में पिता युवा हम छोटे थे
दोनों दुनिया को शिद्दत से झेलते थे।
मुझे वृद्ध पिता ही याद हैं,
सर्दियों की धूप में छत पर
उकडू बैठे हुए सिर झुकाकर
लगते हुए सांसारिकता से रिटायर,
मुझे डांटते हुए या समझाते हुए
मेरे कमरे की दुनिया पर नाराज होते हुए
धूप में आकर बैठने के बहाने से
थोड़ी देर बतियाने की कामना करते हुए।
अब सर्दियों की धूप नहीं बुलाती
न बचपन रहा है न पिता ही
अब छत से कोई आवाज नहीं आती,
अब मौसमों के कष्ट समझने लगा हूँ
अब धूप की कीमत बेहतर जानता हूँ
यादों का सूरज धुँधला हुआ जाता है
अब ठंडे कमरे के बारे में कोई नहीं चेताता है।
लेखक परिचय | श्री अवतार सिंह

व्याख्याता, रा उ मा वि रामसर पालावाला, जयपुर