
कविता बिक रही है।
सत्ता पाने को, नीचता के तवे पर,
राजनीति की रोटियाँ सिक रही है।
छोड़ धर्म अपना, थाम बांहें असत्य की,
देखो कलम बिक रही है।
भ्रष्टों की गोद में, मोद से बैठी,
जो कहे वो लिख रही है।
आर्तनाद रियाया का सुनती नहीं,
गूंगी बहरी – सी दिख रही है।
सत्य अछूता है कलम की धार से,
फेक न्यूज़ फिक रही है।
कलम वीर अब खामोश हैं,
क्योंकि कलम बिक रही है।
अब उसूलों की बात बेमानी है,
नोटों की गड्डियाँ फिक रही है।
जात धर्म का चश्मा पहनकर,
ऐंठी कलम बिक रही है।
शब्द भी अब पक्ष विपक्ष के हो गए हैं,
दूर कोने में सच्चाई सिसक रही है।
चुने हुए लफ़्जों को तौलकर,
पक्षपाती कलम बिक रही है।
मुद्दों की बातें हुई हवा-हवाई,
इंसानियत बिलख रही है।
भ्रष्टों की गोद में, मोद से बैठी,
कलम बिक रही है।