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पं.श्रीराम शर्मा आचार्य |  दूसरों पर दोषारोपण मत कीजिए

उत्तरदायित्व पर कृष्ण की शिक्षा

भगवद गीता में, भगवान कृष्ण अपने कार्यों की जिम्मेदारी लेने और परिणामों के लिए दूसरों को दोष न देने के महत्व के बारे में सिखाते हैं।

कृष्ण इस बात पर जोर देते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारों, शब्दों और कर्मों के लिए स्वयं जिम्मेदार है, और यह कि उन्हें अपनी पसंद और उनसे उत्पन्न परिणामों का स्वामित्व लेना चाहिए। वह बताते हैं कि दूसरों को दोष देने से केवल नकारात्मक ऊर्जा पैदा होती है और आगे दुख और संघर्ष होता है।

कृष्ण यह भी सिखाते हैं कि सच्चा ज्ञान और आध्यात्मिक विकास आत्म-प्रतिबिंब और आत्म-जागरूकता से आता है। अपनी गलतियों को स्वीकार करके और उनकी जिम्मेदारी लेने से हम अपनी गलतियों से सीख सकते हैं और एक व्यक्ति के रूप में विकसित हो सकते हैं।

संक्षेप में, भगवान कृष्ण की शिक्षाएँ हमें अपनी समस्याओं के लिए दूसरों को दोष देने के बजाय अपने स्वयं के जीवन के लिए जवाबदेह होने और व्यक्तिगत जिम्मेदारी की मानसिकता विकसित करने की याद दिलाती हैं।


  
पं.श्रीराम शर्मा आचार्य |  दूसरों पर दोषारोपण मत कीजिए

लोगों में एक बहुत बुरी आदत यह पायी जाती है कि अपनी कठिनाइयों का कारण किसी दूसरे का कसूर सोच कर सस्ते में अपना मन हल्का करते रहते हैं । अमुक ने जादू टोना करके हमें या हमारे परिवार को हैरानी में डाल दिया है ।  ऐसा सोचते रहने वाले और निर्दोष पड़ोसियों पर अकारण ही दुर्भाव थोपते रहने वालों की कमी नहीं । भूत-पलीतों और ग्रह-नक्षत्रों पर ऐसे ही इल्जाम लगाने वालों की मूर्ख मंडली के सदस्य लाखों नहीं करोड़ों होंगे । भाग्य को कोसने वाले, हस्तरेखाओं के रचयिताओं पर अन्याय का दोष लगाने वाले किसी से पीछे नहीं । माँ-बाप ने अमुक कमी न रखी होती, जैसे सोचते-कहते हुए असंख्यों पाए जाते हैं । ऐसे ही भ्रम जंजाल में फँसने वाले वे लोग हैं, *जो अपनी कठिनाइयों के ऐसे असंख्यों कारणों में से एक का भी विचार नहीं करते, जिनसे निज के दोष-दुर्गुणों पर भटकाव, अनाचार एवं अचिंत्य चिंतन का पर्दाफाश होता है । सरलता इसी में प्रतीत होती है कि क्यों न उपासना जैसे किसी ऐसे माध्यम को दोषी ठहरा दिया जाए जो सामने खड़ा होकर अपनी सफाई देने और झूठे इल्जाम के बदले गाल पर तमाचा जड़ने की स्थिति में नहीं है ।


अवांछनीय दोषारोपण से अपनी आत्मा कलुषित होती है । आत्म-निरीक्षण और आत्म-सुधार का अवसर हाथ से निकलता है । प्रतिरोधों से जूझने की सामर्थ्य कुंठित होती है । जब देवता या भगवान ही विपत्ति बरसाने के कारण हैं, तो उनसे जूझने की प्रतिकार चेतना कोई किस प्रकार उभारे ।  ऐसी मन:स्थिति में हताश होकर आँसू बहाते रहने या जिस पर दोष थोपा गया है, उसे कोसते रहने के अतिरिक्त और कोई चारा ही शेष नहीं रह जाता । यह मन:स्थिति मनुष्य का भविष्य अंधकारमय बनाने वाली सिद्ध हो सकती है ।