Hindi Essay on “Pariksha ka Bhay”, “परीक्षा का भय” Complete Essay, Paragraph, Speech for Class 7, 8, 9, 10, 12 Students.
किसी के गुण, योग्यता, सामर्थ्य आदि की ठीक-ठीक स्थिति जानने की, पता लगाने की क्रिया परीक्षा है। वह समुचित उपाय, विधि या साधन जिससे किसी के गुणों आदि का पता लगाया जाता है, परीक्षा है। ‘दुष्टादुष्टतावलोकनम् परीक्षा’ के अनुसार शुद्ध- अशुद्ध, सदोष-निर्दोष आदि की जाँच का नाम परीक्षा है। दूसरी ओर ‘तर्क प्रमाणादिना वस्तु तत्त्वावधारणं-परीक्षा’ है। अर्थात् तर्क- सिद्ध प्रमाणों के सहारे वस्तु तत्त्व को निश्चित करने का नाम परीक्षा है।
संस्कृत में परीक्षा शब्द की निष्पत्ति इस प्रकार है-परि (उपसर्ग) + ईक्ष् (धातु) आ (टाप्) । व्युत्पत्ति है— ‘परितः सर्वतः, ईक्षणं-दर्शनम् एव परीक्षा।’ अर्थात् सभी प्रकार से किसी व्यक्ति या वस्तु के अवलोकन अथवा मूल्यांकन को परीक्षा कहते हैं। +
मनुष्य शरीर की पाँचों उँगलियाँ समान नहीं हैं, इसी प्रकार गुण, योग्यता और सामर्थ्य की दृष्टि से मानव-मानव में अंतर है। उसके ज्ञान, विवेक और कर्मठता में अंतर है। विश्व के विभिन्न अंगों के संचालन के लिए तदनुरूप योग्यता और सामर्थ्य सम्पन्न महापुरुष चाहिएँ। विश्व-जन को शिक्षित करने के लिए शिक्षा शास्त्री चाहिएँ। विज्ञान से विश्व को आलोकित करने के लिए वैज्ञानिक चाहिएँ। विश्व व्यवस्था स्थापनार्थ राजनीतिज्ञ- कूटनीतिज्ञ चाहिएँ। व्यक्ति विशेष में कार्य-विशेष के लिए गुण हैं या नहीं, पद की प्रामाणिकता और व्यवस्था का सामर्थ्य है या नहीं, इसकी जानकारी के लिए परीक्षा ही एकमात्र साधन है। दो-एक उदाहरणों द्वारा यह बात स्पष्ट हो जाएगी।
एक कक्षा में पैंतीस विद्यार्थी पढ़ते हैं। उनको शिक्षा देने वाले शिक्षक समान है। सभी को एक ही समय और निश्चित अवधि में शिक्षा मिलती है। किसी को अधिक नहीं, दूसरे की उपेक्षा नहीं। इन पैंतीस विद्यार्थियों में किसने कितनी शिक्षा ग्रहण की है, इसका पता कैसे लगाएँगे? उनकी परीक्षा लेकर।
दूसरी ओर योग्यता-क्रम निर्धारण करने के लिए भी ‘परीक्षा’ का माध्यम अपनाना पड़ेगा। प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ आदि स्थानों के निर्णय का निर्धारण बिना परीक्षा के असम्भव है। सौ रिक्त पदों की पूर्ति के लिए सहस्रों आवेदन-पत्र आए हैं। उनमें से सौ आवेदन कर्ताओं का चयन कैसे करेंगे ? माथे पर तो किसी की योग्यता, विशेषता अंकित है नहीं। बस, एक ही उपाय है-परीक्षा । पद के अनुकूल उनकी योग्यता, विशेषता, शालीनता, शिष्टता की जाँच करके क्रम निर्धारित करेंगे।
जीवन में किसकी परीक्षा कब होती है, इसके लिए विद्वानों ने अनेक मापदंड स्थापित किए हैं। शिवपुराण में कहा गया है-
दातुः परीक्षादुर्भिक्षे रणे शूरस्य जायते ।
आपत्काले तु मित्रस्याशक्तौ स्त्रीणां कुलस्य हि ॥
विनते: संकटे प्राप्तेऽवितथस्य परोक्षतः ।
(रुद्र संहिता पार्वती खंड)
१/१०) अर्थात् सोने की शुद्धि या अशुद्धि अग्नि में ही देखी जाती है।
सम्भवजातक का कहना है-
सुस्नेहस्य तथा तथा नान्यथा सत्यमीरितम् ॥ दाता की परीक्षा दुर्भिक्ष में, शूरवीर की परीक्षा रणभूमि में, मित्र की परीक्षा आपत्तिकाल में तथा स्त्रियों के कुल की परीक्षा पति के असमर्थ हो जाने पर होती है। संकट पड़ने पर विनय की परीक्षा होती है और परोक्ष में सत्य एवं उत्तम स्नेह की, अन्यथा नहीं। कालिदास कहते हैं ‘हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा।’ (रघुवंश
जवेन वाजिं जानन्ति बलिवदं च वाहिए।
दोहेन धेनुं जानन्ति भासमानं च पंडितम् । वेग से अच्छे घोड़े का पता चलता है। भार ढोने के सामर्थ्य से अच्छे बैल का, दूहने से अच्छी गाय का और भाषण से पंडित का। तुलसीदास जी के विचार में ‘धीरज धर्म मित्र
अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारि।’ (रामचरित मानस ३/५४) किसी भी विद्वान् ने विद्यार्थी के ज्ञान तथा नौकरी में योग्यता की परीक्षा की बात नहीं कही। सच्चाई तो यह है कि वर्तमान समय में परीक्षा की शुद्ध व्यावहारिक व्याख्या विद्यार्थी
के ‘एग्जाम’ में है तो नौकरी के लिए लिखित तथा मौखिक साक्षात्कार (इन्टरव्यू) में है। जनसाधारण के जीवन का उद्देश्य है जीवनयात्रा को सुचारु रूप से चलाना। शिक्षा इस उद्देश्य प्राप्ति का निश्चित प्रामाणिक सोपान है। इसलिए वह सीढ़ी-दर-सीढ़ी शिक्षा की’ श्रेणियों’ की परीक्षा उत्तीर्ण करता हुआ अपनी योग्यता अर्जित करता है। उस योग्यता के बल पर ‘नौकरी’ के द्वार खटखटाता है उसके लिखित या मौखिक अथवा दोनों प्रकार की परीक्षा का सामना करते हुए जीवन जीने का जुगाड़ भिड़ाता है। अतः आज के युग में इन दोनों तत्त्वों को मुख्यतः ‘परीक्षा’ की परिभाषा में लेना चाहिए।
भय क्या है? वह मानसिक स्थिति जो किसी अनिष्ट या संकट-सूचक संभावना से उत्पन्न होती है और जिसमें प्राणी चिंतित और विकल होने लगता है, भय है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कहना है, ‘किसी आती हुई आपदा की भावना या दुःख के कारण के साक्षात्कार से जो एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्तम्भकारक मनोविकार होता है, उसी को भय कहते हैं। (चिंतामणि भाग १ ‘भय’)
भय से ही दुःख आते हैं, मृत्यु होती है और बुराइयाँ उत्पन्न होती हैं। अंधेरी रैन में जेवड़ी साँप लगती है। शंका डायन बन जाती है और मनसा भूत रक्त का प्रवाह अवरुद्ध होकर विवेक का हरण होता है। भय से उत्पन्न दुर्वृत्तियाँ सब प्रकार के पुरुषार्थ को नष्ट कर देती हैं। सिवेल का कथन है, ‘भय वह कर है, जिसे अन्तःकरण अपराध को देता है।” (Fear is the tax that conscience pays to guilt – Scwell)
अश्वघोष के अनुसार बुढ़ापा, रोग और मृत्यु, इस संसार के महाभय हैं। (जरा व्याधिश्च मृत्युश्च लोकस्य महद्भयम् – सौन्दरनन्द १५/४६) चाणक्य ने आठ महाभय माने हैं— अग्नि, जल, बीमारी, दुर्भिक्ष, चूहे, व्याघ्र, साँप और राक्षस (अर्थशास्त्र ४/३/ ११-२ ) इन तथा अन्य नीतिकारों ने ‘परीक्षा के भय’ को महाभय नहीं माना। जबकि परीक्षा- भय’ इन भयों से अधिक भयानक है। कारण, उपर्युक्त सभी भय शारीरिक हैं और ‘परीक्षा भय’ मानसिक है। शारीरिक भय अर्थात् बाहरी भय की रक्षा अंतःकरण अर्थात् आभ्यन्तर
कर सकता है, परन्तु आभ्यन्तर से उत्पन्न भय शीघ्र ही मूलसहित विनाश कर देता है। परीक्षा भय का भूत जब परीक्षार्थी पर सवार होता है तो दिन में तारे नजर आते हैं। रातों की नींद हराम हो जाती है। दूरदर्शन के मनोरंजन कार्यक्रमों में दुष्टदर्शन की मनहूस शक्लें नज़र आती हैं। रात करवटें बदलते बीतती है, दिन घोटे लगाने में जाता है। सहायक- ग्रंथों को हनुमान चालीसा की तरह रटता है। ‘सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही ‘करता है।
परीक्षार्थी अपना ध्यान केन्द्रित कर अध्ययन द्वारा परीक्षा के भय को तो पराजित करने की ठानता है, किन्तु परीक्षा का दूसरा भय उसके मन-मस्तिष्क को कचोटता रहता है। यदि कंठस्थ किए प्रश्न नहीं आए तो ? परीक्षक ने प्रश्न-शैली में परिवर्तन कर दिया तो ? यदि निर्दय प्रश्न-पत्र निर्माता ने क्लिष्ट प्रश्नों के अनेक राक्षसों को उपस्थित कर दिया तो ? यदि पाठ्यक्रम से बाहर के प्रश्न पूछ लिए तो ? यदि ‘ओबजेक्टिव’ (वस्तुनिष्ठ) के नाम पर प्रश्नों की संख्या हनुमान् की पूँछ की तरह लम्बी हुई तो ?
परीक्षा में बैठना ही है तो फिर ‘तो’ क्यों ? प्रवंचनामय इस कलयुग में क्यों न प्रवंचना की वैसाखी का सहारा लिया जाए। प्रवंचना को बैसाखी है नकल पर ‘नकल’ भी तो स्वयं में भयप्रद है। नकल करने की सुविधा मिल सकेगी या नहीं ? नकल करते पकड़े गए तो जीवन ही नष्ट हो जाएगा। फिर मौखिकी (इंटरव्यू) में तो नकल का अवसर ही नहीं मिलता। वहाँ तो स्मरण शक्ति और प्रत्युत्पन्नमति पर भरोसा करना पड़ता है।
परीक्षा भय से मुक्ति परीक्षार्थी की सफलता की कुंजी है। प्रगति पथ का प्रकाश स्तंभ है। उज्ज्वल भविष्य का उदीप्त सूर्य है। भयमुक्ति के उपाय हैं- (१) एकाग्रचित्त द्वारा नियमित अध्ययन (२) साहसपूर्ण आत्मविश्वास इन दोनों उपायों से परीक्षा भय सुषुप्त होगा. यदा-कदा जागृत होकर भयभीत नहीं करेगा कठिन प्रश्न, दुरूह प्रश्न- शैली और अपठित की समस्या स्वस्थ मन में स्वतः हल हो जाएगी। कलम की नोक पर उनके उत्तर अनायास अवतरित होते जाएंगे।
परीक्षा और भय का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है चोली-दामन का साथ है। बिना भय के परीक्षा का अस्तित्व नहीं और बिना परीक्षा भय का निदान नहीं। महात्मा गाँधी जी का कहना है, ‘भयभीत व्यक्ति स्वयं ही डरता है, उसको कोई डराता नहीं।’ इसलिए भय का सामना निर्भीक होकर साहस से करके सफलता की दिव्य ज्योति के दर्शन करो।