
मिट्टी का बना हूँ मैं तो बिखरने से क्यूँ डरूँ?
जब तलक जिन्दा हूँ मैं – तो मरने से क्यूँ डरूँ?
डूब कर या तैर कर जब किनारें ही पहुँचना है,
तो फिर जिन्दगी की नदी में यूँ उतरने से क्यूँ डरूँ?
“कु.महेन्द्र पालीवाल”
मेरी आत्म – व्यथा
यूँ आज साल के इस पहले पावन पर्व पर…!
प्रिये की यादों में चढ़ आया मैं यूँ छत पर…!!
उड़ती पतंगों से यूँ आसमां आज रंगीन था…!
प्रिये न थी संग तो मैं भी आज हैरान था…!!
प्रिये की यादों में उड़ते पतंग से कह डाला…!
प्रिये बिना हैं आज ये सुना है यूँ मधुशाला…!!
अफ़सोस मुझे भी होता हैं पतंगों की आभा से…!
क्यूँ कि आज होड़ लगी हैं जितनी कि प्रतिभा से…!!
कु. महेन्द्र पालीवाल