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युगचिंतन | कर्मफल का सिद्धांत

युगचिंतन| कर्मफल का सिद्धांत

कर्मफल एक ऐसी सच्चाई है जिसे इच्छा या अनिच्छा से स्वीकार ही करना होगा। यह समूची सृष्टि एक सुनियोजित व्यवस्था की श्रृंखला में जकड़ी हुई है। क्रिया की प्रतिक्रिया का नियम कण-कण पर लागू होता है और उसकी परिणति का प्रत्यक्ष दर्शन पग-पग पर होता है।

भूतकालीन कृत्यों के आधार पर वर्तमान बनता है और वर्तमान का जैसा भी स्वरूप है, उसी के अनुरूप भविष्य बनता चला जाता है। किशोरावस्था में कमाई हुई विद्या और स्वास्थ्य सम्पदा जवानी में बलिष्ठता एवं सम्पन्नता बनकर सामने आती है। यौवन का सदुपयोग-दुरुपयोग बुढ़ापे के जल्दी या देर से आने, देर तक जीने या जल्द मरने के रूप में परिणत होता है। वृद्धावस्था की मनःस्थिति संस्कार बनकर मरणोत्तर जीवन के साथ जाती और पुनर्जन्म के रूप में अपनी परिणति प्रकट करती है।

कुछ कर्म तत्काल फल देते हैं, कुछ की परिणति में विलम्ब लगता है। व्यायामशाला, पाठशाला, उद्योगशाला के साथ सम्बन्ध जोड़ने के सत्परिणाम सर्वविदित हैं, पर वे उसी दिन नहीं मिल जाते, जिस दिन प्रयास आरम्भ किया गया था। कुछ काम अवश्य ऐसे होते हैं, जो हाथों-हाथ फल देते हैं। मदिरा पीते ही नशा आता है। जहर खाते ही मृत्यु होती है। गाली देते ही घूँसा तनता है। दिन भर परिश्रम करते ही शाम को मजदूरी मिलती है। टिकट खरीदते ही सिनेमा का मनोरंजन चल पड़ता है। ऐसे भी अनेक काम हैं, पर सभी ऐसे नहीं होते। कुछ काम निश्चय ही ऐसे हैं, जो देर लगा लेते हैं। असंयमी लोग जवानी में ही खोखले बनते रहते हैं, उस समय कुछ पता नहीं चलता। दस-बीस वर्ष बीतने नहीं पाते कि काया भी जर्जर होकर अनेक रोगों से घिर जाती है।

समय साध्य परिणतियों को देखकर अनेक लोगों को कर्मफल पर अविश्वास होने लगता है। वे सोचते हैं कि आज का प्रतिफल हाथों-हाथ नहीं मिला तो वह कदाचित भविष्य में भी कभी नहीं मिलेगा। अच्छे काम करने वाले प्रायः इसी कारण निराश होते हैं और बुरे काम करने वाले अधिक निर्भय निरंकुश बनते हैं। तत्काल फल न मिलने की व्यवस्था भगवान ने मनुष्य की दूरदर्शिता, विवेकशीलता को जाँचने के लिए ही बनाई है। अन्यथा वह ऐसा भी कर सकता था कि झूठ बोलते ही मुँह में छाले भर जाय। चोरी करने वाले के हाथ में दर्द होने लगे। व्यभिचारी तत्काल नपुंसक बन जाय। यदि ऐसा रहा होता तो आग में हाथ डालने से बचने की तरह लोग पाप-कर्मों से भी बचे रहते और दीपक जलाते ही रोशनी की तरह पुण्य फल का हाथों-हाथ चमत्कार देखते। पर ईश्वर को क्या कहा जाय। उसकी भी तो अपनी मर्जी और व्यवस्था है। सम्भवतः मनुष्य की दूरदर्शिता विकसित करने एवं परखने के लिए ही इतनी गुंजाइश रखी है कि वह सत्कर्मों और दुष्कर्मों का प्रतिफल विलम्ब से मिलने पर भी अपनी समझदारी के आधार पर भविष्य को ध्यान में रखते हुए आज की गतिविधियों को अनुपयुक्तता से बचाने और सत्साहस को अपनाने में जो अवरोध आते हैं, उन्हें धैर्यपूर्वक सहन करे।

✍🏻युगदृष्टा पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)