विद्यालय का अन्तिम वर्ष अर्थात् प्रमाण-पत्र प्राप्ति के लिए अध्ययन का आखिरी साल। वर्ष का अर्थ १२ मास या ३६५ दिन होते हैं. किन्तु स्कूल का अन्तिम वर्ष १ अप्रैल से ३० अप्रैल तक तथा १ जुलाई से ३१ जनवरी तक की अष्ट-मासिका अवधि में सीमित होता है। अष्ट-मासिका भी रक्षाबन्धन, दशहरा, दीपावली, ईद, बापू जन्म-दिवस, बाल- दिवस, अध्यापक-दिवस, स्वतन्त्रता-दिवस, गणतन्त्र दिवस, मासान्त-दिवस, सुरक्षित अवकाश, ऐच्छिक अवकाश, रविवारीय अवकाश, शरत्कालीन अवकाश एवं शीतकालीन अवकाश दिवसों को कम कर दें, तो इस अन्तिम वर्ष की अवधि पंचमासिका ही रह जाती है।
दसवीं की पढ़ाई, पाँच विषयों के विस्तृत पाठ्यक्रम, गधे के बोझ के समान पुस्तकों के भार और परीक्षा रूपी भूत के अज्ञात भय से युक्त यह अन्तिम वर्ष कैसे कटा ? सच बताऊँ तो हँस पड़ोगे-
दो लड़कपन में बीत गए,
दो अध्ययन के उन्माद में,
बचा एक मास बुढ़ापा,
दिन को लगाते घोटे,
रातों को जागते बीत गए।
मैं पढ़ाई की दृष्टि से न फिसड्डी हूँ और न प्रथम श्रेणी का छात्र। दैनिक स्कूल-कार्य करना, पाठ कंठस्थ करना, प्रश्नों को हल करना, मेरा स्वभाव है। ‘लागी लगन छूटत नहीं, जीभ चोंच जरिए जाए’ मेरा यह स्वभाव इस अन्तिम वर्ष में भी यथावत् बना रहा, किन्तु विद्यालय व्यवस्था ने मेरे इस क्रम में विघ्न डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। १५ अगस्त की तैयारी में लालकिले की दौड़, २६ जनवरी की तैयारी में नेशनल स्टेडियम की परेड, स्कूल वार्षिकोत्सव में पथ संचलन- पूर्वाभ्यास, मेरे अध्ययन में ऐसे विघ्न डालते थे, मानों राक्षसगण ऋषियों के यज्ञ को विध्वंस कर रहे हों। मेरे लाख अनुनय-विनय करने पर भी मेरे अध्यापकों ने मुझ पर दया नहीं की।
न करें दया ? प्लाट्स का कथन है, ‘संकट के समय धीरज धारण करना ही मानों आधी ‘लड़ाई जीत लेना है।’ धैर्य और परिश्रम का संयोग सफलता को चेरी बना देता है। ब्राह्म मुहूर्त में उठकर पाठ कंठस्थ करना शुरू कर दिया और ‘गृहकार्य’ के लिए सायंकालीन खेलों से विदाई ले ली। दिन का विश्राम कम नहीं किया, मन की शान्ति को भंग नहीं होने दिया।
प्रथम सत्र बीता, अक्तूबर में पढ़ाई का जोर आया। हल्की-हल्की सुहावनी ठंड में पढ़ने का आनन्द द्विगुणित हुआ। अध्यापकों का उत्साह ठंडा होता चला गया। विद्यार्थी का हृदय पढ़ने को उत्सुक और अध्यापक अध्यापन से उदासीन एक-एक पाठ को चींटी की चाल से पढ़ाते तो पाठ की प्रश्नावली को तूफान मेल की चाल से करवाते। कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता। दिसम्बर आ गया, किन्तु पाठ्यक्रम समाप्त नहीं हुआ। जो पढ़ाया, घास काटी गई। कई अध्यापक तो कहते, ‘इस सवाल का जवाब कुंजी में पढ़ लेना, इस प्रयोग की विधि ‘गाइड’ में देख लेना।’
मैं हताश और निराश। जो पढ़ाया, वह समझ में आया नहीं, जहाँ समझने की चेष्टा की, वहाँ अपवाद स्वरूप दो-चार बार को छोड़कर मिलीं शिक्षक की झिड़कियाँ।
परीक्षा के लिए आवेदन-पत्र भरने से पूर्व ‘टेस्ट’ हुए। आधी कक्षा अनुत्तीर्ण। अंग्रेजी में मैं लुढ़क गया था। प्रिंसिपल साहब ने आकर चेतावनी दे दी, ‘जो बच्चे टेस्ट में फेल हो गए हैं, उनका फॉर्म नहीं भरा जाएगा।’ मुझे दिन में तारे नजर आने लगे। एक वर्ष की बरबादी। मन सहम उठा, आँखों से अश्रु प्रकट हो गए। साथियों ने प्रिंसिपल साहब को मेरे रोने की बात बता दो। प्रिसिपल साहब गजेटेड ऑफिसरी के रौब में थे। बोले, ‘फेल होने पर रोओगे नहीं, तो हँसोगे सारे साल आवारागर्दी और अब रोना। तुम्हारी तो किस्मत में रोना ही लिखा है।’
दो-चार दिन बाद अंग्रेजी और गणित के अध्यापकों ने आश्वासन दिया कि फॉर्म सबके भरे जाएँगे। अतिरिक्त कक्षा लगाकर तुम्हारी कमजोरी पूरी की जाएगी। जनवरी मास में तुम्हें ठोक-पीट कर वैद्यराज बनाया जाएगा। मैं खुश हुआ। एक वर्ष को बरबदी रुकी। ऊपर से गुरुजनों द्वारा वैद्यराज बनाने का आश्वासन ।
दो-चार दिन बीते। कक्षा में घोषणा हुई कि ‘जो विद्यार्थी अंग्रेजी और गणित की एक्सट्रा क्लास अटेण्ड करना चाहते हैं, वे पाँच-पाँच सौ रुपये शीघ्र जमा करवा दें।’ अध्यापकों की दया, कृपा, करुणा, सहानुभूति का प्रसाद आर्थिक दण्ड । विवशता अभिशाप है, असहाय, दुर्बल, निर्बल का उपहास है। मरता क्या न करता ? अतिरिक्त कक्षाओं का लाभ उठाया। यहाँ अध्यापकगण जरा प्रेम से पढ़ाते समझाते थे। कठिनाई का स्नेहपूर्वक निवारण करते थे।
१ फरवरी आई। अध्ययन-अवकाश मिला। विद्यालय से विदाई ली। विदाई समारोह हुआ। अध्यापकों ने चरित्र-निर्माण, देशभक्ति, राष्ट्रभक्ति के और न जाने क्या-क्या उपदेश दिए। आश्वासन दिया कि कोई बच्चा जब चाहे विद्यालय आकर अपने अध्यापक से समझ में न आने वाला प्रश्न समझ सकता है। मुझे आश्वासन में प्रवंचना लक्षित हुई।
विद्यालय का अन्तिम वर्ष बीत गया। पाठ्यक्रम अधूरा ही रह गया। पाठ्यपुस्तकों की आवृत्ति करवाए बिना और कापी चैक करने की बीमारी से बचकर भाग गया।
विदाई समारोह का आयोजन-
1 फरवरी आई। अध्ययन-अवकाश मिला। विद्यालय से विदाई ली। विदाई-समारोह हुआ। अध्यापकों ने चरित्र-निर्माण, देशभक्ति, राष्ट्रभक्ति के और न जाने क्या-क्या उपदेश दिए। आश्वासन दिया कि कोई बच्चा जब चाहे विद्यालय आकर अपने अध्यापक से समझ में न आने वाला प्रश्न समझ सकता है।
उपसंहार-
इस प्रकार विद्यालय में मेरा अंतिम वर्ष चिंतित, भावुक और संघर्ष के साथ बिता।