Policy Updates

विद्यालय में मेरा पहला दिन | विद्यालय में मेरा पहला दिन पर निबंध। Hindi Essay on My first day at school

स्कूल में मेरा प्रथम दिन पर निबंध – स्कूल का विवरण – स्कूल में प्रथम दिन – सहपाठियों का विवरण – First day in school essay in hindi – Essay on first day in school in hindi – Vidyalay mein mera pehla din par nibandh

विद्यालय में मेरा पहला दिन पर निबंध

विद्यालय में मेरा पहला दिन आषाढ़ के प्रथम मेघ के समान सुखद रसगुल्लों के समान मधुर और भोजन में अवांछित चरचरी मिर्च के समान कुछ तिक्तताप्रद रहा। कुछ सहपाठियों का चहेता बना तो कुछ को लगा आँख की किरकिरी कहाँ से टपक पड़ी यह बला।

पिताजी का स्थानान्तरण भोपाल से दिल्ली हुआ था तो समस्त परिवार पिताजी के साथ ही दिल्ली स्थानान्तरित हो गया। पिता जी को सरकारी बंगला प्राप्त था. इसलिए आवास की कोई समस्या उत्पन्न न हुई ग्रीष्मावकाश समाप्त होने के बाद केन्द्रीय विद्यालय में मुझे प्रवेश भी सहज ही मिल गया। मैं आत्म-विश्वासपूर्वक कक्षा में प्रविष्ट हुआ और एक खाली डैस्क पर पुस्तकें रखकर प्रार्थना स्थल की ओर चल पड़ा। मुझे यह तो पता था कि प्रार्थना में पंक्तियाँ कक्षानुसार बनती हैं, पर मेरी कक्षा की कौन सी पंक्ति है, यह जानकारी मुझे न थी, इसलिए मैं अपनी ही कक्षा के एक छात्र के पीछे-पीछे जाकर पंक्ति में खड़ा हो गया।

प्रार्थना के पश्चात् विद्यार्थी अपनी-अपनी श्रेणियों में गए। मैं भी कक्षा में जाकर अपने स्थान पर बैठ गया। प्रथम पीरियड शुरू हुआ। अंग्रेजी के अध्यापक आए।’ क्लास स्टैण्ड’ हुई, बैठी। अंग्रेजी अध्यापक ने ग्रीष्मावकाश के काम के बारे में जानकारी ली। एक विद्यार्थी को कापियाँ इकट्ठी करने के लिए कहा। जब वह विद्यार्थी मेरे पास आया तो मैंने हाथ हिला दिया। उसने वहीं से कहा, ‘सर, यह कापी नहीं दे रहा है।’ शिक्षक ने डाँटते हुए पूछा तो मैंने बताया कि ‘मैं आज ही विद्यालय में प्रविष्ट हुआ है, इसलिए मुझे काम का पता नहीं था।’

इंग्लिश-सर का गुस्सा झाग की तरह बैठ गया। तब प्यार से पूछा, ‘पहले कहाँ पढ़ते थे?” मैंने बताया कि मैं केन्द्रीय विद्यालय, भोपाल का छात्र हूँ। पिताजी की बदली होने के कारण दिल्ली आया हूँ। अध्यापक महोदय का दूसरा सवाल था-होशियार हो या कमजोर ? मेरा उत्तर था, ‘मैं पढ़ाई में तो अच्छा हूँ हो, शरीर से भी बलवान् हूँ।’ मेरे इस उत्तर से सारी कक्षा ने मुझे ऐसे घूरकर देखा मानो में चिड़ियाघर का कोई विचित्र प्राणी इसी प्रकार चार पीरियड समाप्त हुए अर्धावकाश हुआ। मैंने जान-बूझकर अपनी साथ वाले स्थान पर बैठे छात्र को चाय का निमन्त्रण दे डाला। वह तैयार हो गया। दोनों स्कूल कैंटीन की ओर चले। रास्ते में परिचय हुआ। पता लगा, वह हमारे हो आवास- परिसर में रहता है। उसी से पता चला कि तीन अन्य सहपाठी भी उसी परिसर से आते है।

भाग्य की बात, चाय के स्टाल पर वे तीनों भी मिल गए। हम पाँच जनों ने चाय पी । गपशप की। एक-दूसरे के बारे में जानकारी ली। निश्चय किया कि कल से पाँचों स्कूल इकट्ठे आया करेंगे। चाय के पचास रुपये मैंने दिए। दस रुपयों में पाँच साथी मिल गए तो मुझे लगा सौदा सस्ता है। बड़ा सुखद रहा मध्यान्तर ।

घंटी बजी। कक्षाएँ पुनः आरम्भ हुई। पहला पीरियड था हिन्दी अध्यापिका का। ये बड़ी काइयाँ थीं। प्रथम दृष्टि में ही उन्होंने मुझे ताड़ लिया। व्यंग्य से पूछा—’कौन हो वसन्त के दूत ?’ मैं दो क्षण चुप रहा। अध्यापिका को लगा कि यह मूढ भट्टाचार्य कहाँ से टपक पड़ा? उन्होंने फिर प्रश्न दोहराया तो मैंने उत्तर दिया- मैं हूँ —’घन में तिमिर चपला की रेख, तपन में शीतल मन्द बयार।’ अध्यापिका की आँखें फटी की फटी रह गईं। वे उठीं और मेरे पास आईं। आशीष दी। अपनी कुर्सी पर बैठकर उन्होंने अन्य छात्रों को बताया कि आज तुम्हारी कक्षा में एक अत्यन्त गुणी, चतुर, प्रत्युत्पन्नमति और अध्ययनशील विद्यार्थी ने प्रवेश किया है।

कक्षा में प्रायः प्रथम आने वाले एक अन्य चतुर छात्र से न रहा गया। उसे लगा कि कोई उसको चुनौती देने वाला पैदा हो गया है। उसने खड़े होकर अध्यापिका से पूछ लिया ‘इसके उत्तर में क्या विशेषता थी ?’ अध्यापिका ने कहा, ‘चावल पकाए जा रहे हों तो पतीली में से दो-चार चावलों को उठाकर देखा जाता है कि पके हैं या नहीं? मैंने वैसे ही मस्ती की मन:स्थिति में ‘प्रसाद’ की ‘कामायनी’ की पंक्ति से पूछ लिया था कि तुम कौन हो ? इसने कामायनी के इसी पद की शेष पंक्तियों में उत्तर दे दिया। लगता है, इसे कामायनी कण्ठस्थ है। फिर उत्तर भी लाजवाब – ‘अन्धकार में बिजली और गर्मी की तपन में ठंडी हवा के समान मैं हूँ।’ बस, क्या था, कक्षा पर मेरी विद्वत्ता की छाप पड़ गई। मुझे लगा, विद्यालय में पहले ही दिन का मेरा प्रवेश सफल हो गया।

यथासमय घंटी बजती रही। पीरियड बदलते रहे। शिक्षक आते-जाते रहे। अन्तिम पीरियड आ गया। अध्यापिका आईं। स्थूल शरीर था उनका टुनटुन की चर्बी भी शायद इन्होंने चुरा ली थी। आँखें ऐसी मोटी और डरावनी कि डाँट मारे तो छात्र-छात्राएँ काँप उठें। सुन्दर इतनी कि रेखा और माधुरी भी लज्जित हो जाएँ। वे आईं। क्लास का ‘स्टैंड’ ‘सिट डाउन’ हुआ। उन्होंने पहला प्रश्न किया, ‘कौन है वह लड़का जो आज ही कक्षा में आया है ?’ आते ही पहला वार मुझ पर मैं मौन भाव से खड़ा हो गया। क्या नाम है ? कहाँ रहते हो? माता कहाँ की रहने वाली हैं? पिता किस पद पर हैं? आदि-आदि। मैं प्रत्येक प्रश्न का उत्तर अर्ध-मुस्कान से देता रहा। जब पिता का पद सुना तो लगा जैसे भयंकर भूचाल आ गया हो। वे काँप-सी गईं। उनकी वाणी अवरुद्ध हो गई। पसीना छूटने लगा, पर वे जल्दी ही सहज हो गई और अध्यापन में प्रवृत्त हो गईं। घंटी बजी। वह इस बात का संकेत थी कि अब अपने-अपने घर जाओ।

मैं अपने चारों साथियों से उन स्थूलांगी अध्यापिका की बातें करते विद्यालय के मुख्य द्वार से बाहर निकल रहा था कि उन्हें ही सामने खड़ी पाया। उनका पुनः दर्शन करके मैं कुछ घबरा सा गया। उन्होंने इशारे से जब मुझे बुलाया तो लगा शेर ने बकरी को पास बुलाया हो। उन्होंने केवल इतना ही कहा, ‘अपने पिताजी को मेरा नमस्कार कहना।’ मैंने पूछा भी कि आप कैसे जानती हैं? उन्होंने कहा, ‘यह सब तुम्हारे पिताजी ही बताएंगे।’ मुझे लगा यह चरचरी हरी मिर्च मुझे कुछ हानि पहुँचा सकती है।

विद्यालय से घर लौटा। मन प्रसन्न था। अपनी प्रतिभा का प्रथम प्रभाव अध्यापकों और सहपाठियों पर डाल चुका था पर ‘टुनटुन’ की ‘पिताजी को नमस्ते’ मेरे हृदय को कचोट रही थी। सायंकाल पिताजी कार्यालय से लौटे। बातचीत में मेरे प्रथम दिन की कहानी पूछी तो मैंने सोल्लास सुना दी और डरते-डरते अध्यापिका का ‘नमस्कार’ भी दे दिया। पिताजी हँस पड़े, हँसते ही रहे। बाद में शान्त हुए तो बताया कि वे मेरे साथ पढ़ती थीं और हम दोनों एक ही मौहल्ले में रहते थे। जवानी में वह बड़ी जौली (परिहास प्रिय) लड़की थी। तुम उन्हें मेरी ओर से घर आने का निमन्त्रण देना। यह सुनकर हरी मिर्च की तिक्तता चटपटे स्वाद में बदल गई और मन प्रसन्न हो गया।