विद्यालयों में अनुशासन की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी खेल और सेना में। सेना की थोड़ी-सी अनुशासनहीनता से राष्ट्र परतन्त्र हो सकता है और खिलाड़ी की अनुशासनहीनता से खेल में पराजय अवश्यम्भावी है, उसी प्रकार विद्यालयों की अनुशासनहीनता से विद्यालय का वातावरण बिगड़ता है छात्र अपने मानसिक असन्तोष को उच्छृंखल व्यवहार के द्वारा प्रदर्शित करेंगे। फलतः विद्यालय भवन की तोड़-फोड़, सहपाठियों से अपशब्द प्रयोग, लड़ाई-झगड़ा एवं अध्यापकों से दुर्व्यवहार करेंगे। विद्यालय औपचारिक शिक्षा प्रदान करने का प्रमुख साधन है, यह भावना समाप्त हो जाएगी।
विद्यालयों का सुचारु रूप से संचालन अनुशासन पर ही निर्भर करता है। ‘सुचारु रूप से संचालन‘ का तात्पर्य विद्यालय में ऐसी स्थिति बनाए रखना है, जिससे शिक्षा तथा शिक्षणेतर अनेकानेक कार्य-कलाप सुचारु रूप से चलते रहें। इसके लिए व्यवस्थापकों, अध्यापकों तथा विद्यार्थियों, सभी के सहयोग की आवश्यकता है। जेम्स रॉस ने लिखा है कि ‘बहुत अच्छी व्यवस्था बुरा अनुशासन भी हो सकती है, परन्तु सच्चा अनुशासन सर्वदा अपने साथ व्यवस्था बनाए रखना है।‘
प्रधानाध्यापक जो कि प्रशासनिक दृष्टि से विद्यालय की व्यवस्था के लिए उत्तरदायी होता है, की प्रशासनिक क्षमता, योग्यता, कार्यदक्षता तथा व्यवहार कुशलता पर ही विद्यालय के अनुशासन की प्राचीर खड़ी रह सकती है। वह आन्तरिक और बाह्य संघर्ष से विरत रहकर ही प्रशासनिक क्षमता और कुशलता उत्पन्न कर सकता है।
प्रशासनिक व्यवस्था सुन्दर होगी तो विद्यालय ठीक समय पर लगेगा, प्रार्थना में सभी विद्यार्थी और अध्यापक उपस्थित रहेंगे, पीरियड ठीक समय पर बजेंगे, अध्यापक अपने पीरियड में कक्षाओं में अध्यापन कार्य करेंगे, न विद्यार्थी इधर-उधर घूमता मिलेगा, न कक्षाओं से बाहर अध्यापक विद्यालय में ‘पिन ड्राप साइलेंस‘ (पूर्णशान्ति) होगी। पढ़ने और पढ़ाने वाले, दोनों को आनन्द आएगा। यह आनन्द तभी प्राप्त होगा जब विद्यालय में अनुशासन होगा।
विद्यालय के अनुशासन की व्यवस्था का दूसरा दायित्व है अध्यापकों पर। अध्यापक राष्ट्र के संस्कृति रूपी उद्यान का चतुर माली है। वह छात्र के संस्कार की जड़ों में खाद देता है। अपने श्रम से सींच सींचकर उन्हें महाप्राण बनाता है। इसके विपरीत यदि अध्यापक स्वयं संस्कार रहित रहे, आचरण-हीनता प्रदर्शित करे, लोभ-लालचवश विद्यार्थियों से दुर्व्यवहार करे, तो व्यवस्था के प्रति विद्रोह उत्पन्न होगा, विद्यालय में अशान्ति होगी, पढ़ाई- लिखाई दिखावा मात्र होगी, ट्यूशनों की हुँडी भुनाई जाएगी, परीक्षा में पक्षपातपूर्ण अंक प्रदान किए जाएँगे।
विद्यालय में अनुशासन की तीसरी और मुख्य कड़ी है- विद्यार्थी। विद्यार्थी सहपाठियों की चुगली करके, उनकी वस्तुएँ चुराकर उनसे अपशब्द कहकर, मारपीट करके, गुरुजनों की आज्ञा का उल्लंघन करके, बिना कारण पीरियड छोड़ कर, गृहकार्य न करके, गुरुजनों के पीछे उनकी हँसी उड़ाकर, उनसे कुतर्क करके तथा परीक्षा में नकल करके विद्यालय के अनुशासन को भंग कर सकता है। अनुशासन आचरण के आन्तरिक स्रोत को स्पर्श करता है, विद्यार्थी के आवेगों व शक्तियों को विधानों के अधीन रखकर उच्छृंखलता को व्यवस्थित करता है। आन्तरिक दृढ़ता आ जाने पर विद्यार्थी का बाह्य आचरण भी स्वतः शुद्ध हो जाएगा। विद्यार्थी अनुशासन प्रेमी बन जाएगा।
दुर्भाग्य से विद्यालयों की सुव्यवस्था को आज का राजनीतिज्ञ पसन्द ही नहीं करता। विपक्षी दल सत्ता पक्ष को नीचा दिखाने के लिए विद्यार्थी वर्ग का उपयोग करता है। परिणामस्वरूप नारेबाजी, विद्यालय की तोड़-फोड़, गुरुजनों के प्रति अनास्था का जन्म होता है। विद्यालय शिक्षा के केन्द्र न रहकर राजनीति के अखाड़े बन जाते हैं, जहाँ हड़ताल और विध्वंस को प्रोत्साहन मिलता है।
विद्यालय की सुचारु व्यवस्था में माता-पिता का दायित्व भी कम नहीं। विद्यार्थी को नियमित और समय पर स्वच्छ गणवेश और स्वस्थ मन से विद्यालय भेजना माता-पिता का कर्तव्य है। विद्यार्थी के आचरण पर तीखी नज़र रखना, विद्यार्थी में अनुशासन की भावना जाग्रत करेगा।
विद्यालयों में विद्यार्थी ठीक ढंग से अध्ययन कर पाएँ, एकाग्रचित्त हो शिक्षा-अर्जन कर सकें, उनमें संस्कार और सुरुचि के अंकुर प्रस्फुटित होकर पुष्पित और पल्लवित हो सकें तथा उनके शरीर और आत्मा का सौन्दर्य विकसित हो सके, इसके लिए विद्यालयों में अनुशासन की नितान्त आवश्यकता है।
प्रकृति स्वयमपि अनुशासन-बद्ध है। सूर्य-चन्द्र का उदय और अस्त, षड्ऋतु- परिवर्तन नियमबद्ध हैं। प्रकृति का अनुशासन संसार को जीवन दे रहा है। यदि प्रकृति अनुशासनहीनता प्रदर्शित करे, तो प्रलय हो जाए। उसी प्रकार ज्ञान-दान के स्रोत संस्कृति और सभ्यता के स्रोत ये विद्यालय अनुशासनहीन हो जाएँगे, तो विद्यार्थी का विकास अवरुद्ध हो जाएगा, भविष्य अन्धकारमय हो जाएगा और देश पतन के गर्त में गिर पड़ेगा।