
बसन्तपंचमी व गणतंत्र दिवस पर एक कविता
बसन्त पँचमी व गणतंत्र दिवस का सुखद संयोग।
धरा पर नवऊर्जा व नवाचार का अवसर अनमोल।
उदासी अवसाद व आक्रोशी उत्तेजना उन्मूलित हों।
सहजीवी सहकार व स्वाभिमान सबल साकार हों।
स्वसामर्थ्य संवर्धन के सुवसर हों हरजन को सुलभ।
सर्वहितार्थ त्याग बलिदानवृत्ति हों प्रबल व परिपक्व।
मिटे सब अतिवादी अलगाव एवं अत्याचारी उन्माद।
स्व और सर्व के हितयोजन का हों सबल संयोजन।।
जननेता बने जनहितेषी, आमजन न हों आत्मक्लेषी।
धर्माचार्य न हों धर्मान्ध, धनपति बने सदा सर्वहितेषी।
सभी गुरु हों ध्यानीज्ञानी, शिष्य बने परम पुरुषार्थी।
छल प्रपंच अहम का अन्त हों, न रहे कोई पाखण्डी।।
अन्तर्मन में स्वपुरखों के पराक्रमी पौरुष का भान रहे।
पश्चिमी श्रेष्ठता की सोच के मनोविकारों से मुक्ति मिले।
हम हैं पूर्ण सबल समर्थ हरपल क्षण यह ऐहसास रहे।
आवेगी उफानों से विमुक्त अपणायत अपरम्पार रहे।।
स्वर्णचिङी बने हिरकचिङी, समृद्धि का लगे अम्बार।
विश्व गुरु गौरव का सम्मान ले पुनः सम्पूर्ण आकार।
आत्मीय अपणायत की अमृत धारा का हों विस्तार।
विश्वधरा है एक परिवार की ऋषि सोच हों साकार।।