राष्ट्रवाद, किसी भौगोलिक क्षेत्र के लोगों में साझा इतिहास, संस्कृति, भाषा और भविष्य के प्रति एकता की भावना है। ये जड़ें गहरी होती हैं और राष्ट्र के निर्माण का आधार बनती हैं। भारत का ऐसा ही एक राष्ट्रीय जागरण सत्रहवीं सदी के अंत से बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में घटित हुआ, जिसने विश्व के मानचित्र पर एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत के उदय का मार्ग प्रशस्त किया।
इस लेख में, हम 1914 से 1930 के दशक तक के महत्वपूर्ण वर्षों का अन्वेषण करेंगे, जो विश्व युद्ध, ख़िलाफ़त आंदोलन, असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा की लहरों में गुंथे हुए हैं। यह वह दौर था जब राष्ट्रप्रेम की ज्वाला प्रज्वलित हुई, विभाजन की रेखाएं धुंधली पड़ीं, और एक एकीकृत राष्ट्र की पहचान उभरकर सामने आई।
1. असंतोष के बीज:
(क) प्रथम विश्व युद्ध का घाव: 1914-1918 का विश्व युद्ध भारत के लिए तूफान बनकर आया। लाखों भारतीय सैनिकों को ब्रिटेन के लिए युद्धक्षेत्र में भेजा गया, उनका बलिदान हुआ, और उनके परिवार बिखर गए। युद्ध ने अर्थव्यवस्था को भी तबाह कर दिया, मुद्रास्फीति बढ़ी और अकाल का साया भी मंडराने लगा। यह वास्तविकता भारतीयों के मन में अंग्रेजी हुकूमत के प्रति असंतोष की अग्नि प्रज्वलित करने के लिए पर्याप्त थी।
(ख) ख़िलाफ़त आंदोलन की लहर: इसी समय, मुसलमानों के लिए एक महत्वपूर्ण चिंता का विषय उभरा था – तुर्की साम्राज्य का पतन। तुर्की सुल्तान को ख़लीफ़ा माना जाता था, जो इस्लामी दुनिया में आस्था का केंद्र था। तुर्की के कमजोर होने से मुसलमानों में चिंता की लहर दौड़ी। 1919 में, मौलाना मोहम्मद अली और मौलाना शौकत अली के नेतृत्व में ख़िलाफ़त आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन में एक नया आयाम जोड़ा। इस आंदोलन ने अंग्रेजी सरकार के लिए असंतोष को और व्यापक बना दिया।
(ग) महात्मा गांधी का प्रवेश: इन अशांत वर्षों में, एक ऐसा नेता उभरा जिसने न केवल भारत, बल्कि विश्व को भी प्रभावित किया – महात्मा गांधी। उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह के हथियारों के साथ स्वतंत्रता संग्राम का रास्ता दिखाया। सविनय अवज्ञा, असहयोग और आमरण अनशन उनके सिद्धांतों के मूल में थे। उन्होंने न केवल राजनीतिक स्वतंत्रता पर, बल्कि सामाजिक सुधारों पर भी जोर दिया, जिसमें छुआछूत के उन्मूलन और महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई शामिल थी।
2. आंदोलन के भीतर विभिन्न धाराएं:
राष्ट्रीय आंदोलन एकता का प्रतीक तो था, लेकिन इसके भीतर विभिन्न विचारधाराओं की नदियां बहती थीं।
(क) गांधीवादी विचारधारा: गांधीजी का रास्ता अहिंसा और शांतिपूर्ण विरोध का था। उन्होंने सरकारी नौकरियों, स्कूलों, कॉलेजों और न्यायालयों के बहिष्कार का आह्वान किया। यह सत्याग्रह, एक निःशस्त्र युद्ध था, जिसने लाखों लोगों को आकर्षित किया और पूरे भारत में स्वतंत्रता की लौ जलाई।
(ख) क्रांतिकारी विद्रोह: कुछ युवाओं ने अहिंसा को पर्याप्त नहीं समझा। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे क्रांतिकारियों ने सशस्त्र विद्रोह का रास्ता अपनाया। बम विस्फोट और महत्वपूर्ण हस्तियों की हत्या उनके कार्यों में
3. सविनय अवज्ञा आंदोलन:
1920 में, गांधीजी ने असहयोग आंदोलन के बाद सविनय अवज्ञा आंदोलन का आह्वान किया। इस आंदोलन का उद्देश्य अंग्रेजी सरकार के साथ किसी भी तरह का सहयोग न करना था। इसमें नमक कानून का उल्लंघन, सरकारी स्कूलों और कॉलेजों का बहिष्कार, और सरकारी नौकरियों से त्यागपत्र शामिल थे। यह आंदोलन अत्यधिक सफल रहा और पूरे भारत में व्यापक जन भागीदारी देखी गई।
4. सामुदायिक स्वामित्व की भावना:
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की एक महत्वपूर्ण विशेषता सामुदायिक स्वामित्व की भावना थी। इस भावना ने भारतीयों को एकजुट किया और उन्हें एक राष्ट्र के रूप में पहचानने में मदद की। इस भावना को निम्नलिखित कारकों से बल मिला:
निष्कर्ष:
भारत में राष्ट्रवाद का विकास एक जटिल और बहुआयामी प्रक्रिया थी। इस प्रक्रिया में विभिन्न कारकों ने योगदान दिया, जिनमें प्रथम विश्व युद्ध, ख़िलाफ़त आंदोलन, असहयोग आंदोलन, विभिन्न विचारधाराएं, सामाजिक क्रांति और सामूहिक स्वामित्व की भावना शामिल हैं। इन कारकों ने भारतीयों में राष्ट्रवाद की भावना को प्रज्वलित किया और उन्हें एकजुट किया। इस भावना ने भारतीयों को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ने और अंततः स्वतंत्रता प्राप्त करने में मदद की।
इस अवधि का अध्ययन भारत के स्वतंत्रता संग्राम को समझने के लिए महत्वपूर्ण है। इसने भारतीय राष्ट्रवाद की जड़ों को मजबूत किया और स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए एक मजबूत आधार प्रदान किया।
ब्रिटिश हुकूमत के लंबे साये में पड़े भारत में 1914 से 1930 के दशक तक ऐसा उफान आया, जिसकी धरती में स्वतंत्रता के वृक्षों के बीज गहरे रोपे गए। यह राष्ट्रवाद का जागरण था, असंतोष की लपटों में तपकर पकने वाला फल। इस सफर को समझने के लिए हमें उन जड़ों तक जाना होगा, जिन्होंने इस आंदोलन को पोषण दिया।
क. प्रथम विश्व युद्ध का घाव: 1914 से 1918 तक चला प्रथम विश्व युद्ध भारत के लिए त्रासदी बनकर आया। लाखों भारतीय सिपाहियों को ब्रिटेन के पक्ष में युद्धक्षेत्रों में भेज दिया गया। वीरगति को प्राप्त हुए अनगिनत बेटों का खून बहता रहा, परिवार पिता-पुत्र विहीन हो गए। युद्ध ने अर्थव्यवस्था को भी बुरी तरह से खोखला कर दिया। मुद्रास्फीति बढ़ी, अकाल का साया मंडराया और आम जनता पर भारी करों का बोझ लाद दिया गया। इस कष्टभरी वास्तविकता ने ब्रिटिश सरकार के प्रति असंतोष की आग जलाई। भंग हुए सपनों और टूटे परिवारों की जमीन पर राष्ट्रवाद के बीज पनपने लगे।
ख. खिलाफत की चिंता: इसी दौरान मुसलमानों के लिए एक और चिंता का विषय सामने आया – खिलाफत का कमजोर होना। तुर्की साम्राज्य के सुल्तान को खलीफा माना जाता था, जो इस्लामी दुनिया में धार्मिक और राजनीतिक नेतृत्व का प्रतीक था। ओटोमन साम्राज्य के पतन के साथ खलीफा पद कमजोर पड़ने लगा। इससे मुसलमानों में चिंता की लहर दौड़ी। 1919 में मौलाना मोहम्मद अली और मौलाना शौकत अली के नेतृत्व में खिलाफत आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन ने अंग्रेजी विरोधी भावना को और तेज कर दिया। खिलाफत के बचाव के लिए उठी यह लहर धर्म की नहीं, बल्कि स्वतंत्रता की आकांक्षा का भी प्रतीक बन गई।
ग. महात्मा गांधी का प्रवेश: इन अशांत वर्षों में एक ऐसा मसीहा उभरा जिसने आंदोलन को दिशा और शक्ति दी – महात्मा गांधी। उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह के हथियारों से शांतिपूर्ण विरोध का रास्ता दिखाया। सविनय अवज्ञा, असहयोग और आमरण अनशन उनके सिद्धांतों के मूल में थे। उन्होंने न केवल राजनीतिक स्वतंत्रता पर, बल्कि सामाजिक सुधारों पर भी जोर दिया, जिसमें छुआछूत के उन्मूलन और महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई शामिल थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अगुआ की भूमिका निभाते हुए उन्होंने पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। गांधीजी का दर्शन और नेतृत्व राष्ट्रवाद की जड़ों को और मजबूत करने के लिए उर्वर भूमि बना।
A. उदारवादी राष्ट्रवाद:
B. उग्र राष्ट्रवाद:
रवैया अपनाया। वहीं, सामाजिक सुधारकों ने जाति और लिंग भेदभाव के खिलाफ संघर्ष करके राष्ट्रवादी आंदोलन को एक नई दिशा और गहराई प्रदान की।
उदारवादी राष्ट्रवादी नेताओं जैसे दादाभाई नौरोजी और गोपाल कृष्ण गोखले ने ब्रिटिश शासन के तहत भारतीयों के लिए अधिक अधिकार और स्वायत्तता की मांग की। उन्होंने विधायी सुधारों, बेहतर प्रशासन और आर्थिक नीतियों में सुधार की वकालत की। इसके अलावा, उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और उद्योग के क्षेत्र में सुधारों पर जोर दिया।
दूसरी ओर, बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय जैसे उग्र राष्ट्रवादी नेताओं ने ब्रिटिश राज के खिलाफ अधिक सक्रिय और प्रत्यक्ष प्रतिरोध की वकालत की। उन्होंने स्वराज (स्वशासन) की मांग की और स्वदेशी तथा बहिष्कार आंदोलनों के माध्यम से ब्रिटिश उत्पादों और सेवाओं के खिलाफ आवाज उठाई। इन आंदोलनों के जरिए उन्होंने भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन दिया और राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता की दिशा में कदम बढ़ाया।
इसके अलावा, बी.आर. आंबेडकर और ज्योतिबा फुले जैसे सामाजिक सुधारकों ने समाज में व्याप्त जातिवाद और लिंग भेदभाव के खिलाफ अहम योगदान दिया। उनके प्रयासों से समाज में न्याय, समानता और अधिकारों क
े प्रति जागरूकता बढ़ी। उनका मानना था कि सच्ची स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद तब तक सार्थक नहीं हो सकते जब तक समाज के हर वर्ग को समान अधिकार और सम्मान नहीं मिलता। आंबेडकर और फुले ने शिक्षा और सामाजिक सुधार के जरिए जाति और लिंग आधारित भेदभाव को चुनौती दी और एक समान और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए कार्य किया।
1920 के दशक में भारत के राष्ट्रप्रेम की धरा पर महात्मा गांधी एक ऐसी हुंकार लेकर आए, जिसने पूरी ब्रिटिश सत्ता को हिला कर रख दिया। वो हुंकार था – असहयोग आंदोलन का। आइए, इस आंदोलन के गर्भ में पलने वाले कारणों, उसके स्वरूप, चुनौतियों और उपलब्धियों का गहन विश्लेषण करें।
क. असहयोग का आह्वान:
प्रथम विश्व युद्ध ने भारतीय जनता के दिलों में घाव खोले थे। असहमति का दमन, आर्थिक कष्ट और खलीफत आंदोलन की असफलता ने जनता के असंतोष को चरम पर पहुंचा दिया। यही वो माहौल था, जिसमें 1920 में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन का बिगुल बजाया। उनका उद्देश्य अहिंसक तरीके से अंग्रेजी सरकार के साथ किसी भी तरह का सहयोग न करना था। इस आंदोलन के पीछे उनका तर्क था कि अंग्रेजी सरकार को कमजोर करने का यही एकमात्र रास्ता है।
ख. आंदोलन का स्वरूप:
असहयोग आंदोलन की ताकत उसकी बहुआयामी रणनीति में छिपी थी। आइए देखें इसके प्रमुख हथियार:
ग. सफलता की झलक और चुनौतियों का सामना:
असहयोग आंदोलन ने लाखों भारतीयों को एकजुट किया और स्वतंत्रता की अलख जगाई। इसने ब्रिटिश सरकार को भी हिला कर रख दिया। सरकार द्वारा आंदोलन को कुचलने के प्रयासों के बावजूद, इसने पूरे देश में व्यापक जनसमर्थन प्राप्त किया। हालांकि, आंदोलन को कुछ आंतरिक चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा, जैसे हिंसा की घटनाएं और गांधीजी का अचानक आंदोलन वापस लेना।
घ. निष्कर्ष:
असहयोग आंदोलन भले ही अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच सका, लेकिन इसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक क्रांतिकारी मोड़ ला दिया। इसने लाखों भारतीयों को राष्ट्रवाद की लौ में तपाया और उन्हें स्वतंत्रता के सपने देखने का हौसला दिया। यह साबित हुआ कि अहिंसक और जन-आधारित विरोध भी ब्रिटिश साम्राज्य को झकझोर सकता है। असहयोग ने स्वतंत्रता के आंदोलन को मजबूत आधार दिया और भविष्य के आंदोलनों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन ने भाषाई, धार्मिक, और जातिगत विविधताओं के बावजूद एक अभूतपूर्व एकता का निर्माण किया। यह एक ऐसी सामूहिक चेतना थी, जिसने करोड़ों लोगों को स्वतंत्रता के सपने के लिए एकजुट किया। आइए, देखें कि कैसे साझा इतिहास, संस्कृति और प्रतीकों ने इस राष्ट्रप्रेम की लहर को जन्म दिया और स्वतंत्रता संग्राम को संबल प्रदान किया।
क. इतिहास की कड़ी:
भारत का लंबा और गौरवशाली इतिहास एक ऐसा सूत्र है, जो सदियों से अलग-अलग समुदायों को जोड़ता आया है। प्राचीन काल से लेकर मुगल और अंग्रेज शासन तक, प्रत्येक युग ने एक साझा अतीत की रचना की है। भारत की समृद्ध परंपराएं, कला, साहित्य और दर्शन भी इस साझा इतिहास का हिस्सा हैं। इन साझा अनुभवों ने भारतीयों में एक ऐसी पहचान का बोध जगाया, जो धर्म, जाति या भाषा से परे थी।
ख. संस्कृति की रंग-बिरंगी छतरी:
भारत की संस्कृति एक रंगीन गुलदस्ते की तरह है, जिसमें विभिन्न धर्मों, भाषाओं और कलाओं की सुगंध बिखरी हुई है। मंदिरों, मस्जिदों और गुरुद्वारों की छतें एक ही आकाश को छूती हैं। दिवाली, होली और ईद जैसे त्योहार सभी को हर्षोल्लास में मिलाते हैं। लोक गीत, संगीत और नृत्य सभी को अपने संगीत की लहर में ताल देते हैं। इस साझा सांस्कृतिक विरासत ने भारतीयों को एकता की राग छेड़ी और स्वतंत्रता की ताल पर थिरकने का हौसला दिया।
ग. प्रतीकों की प्रेरणा:
राष्ट्रवाद को अभिव्यक्त करने के लिए राष्ट्रीय प्रतीक एक शक्तिशाली माध्यम होते हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी कुछ ऐसे प्रतीक उभरे, जिन्होंने लोगों को एकजुट किया और उनमें स्वतंत्रता की लौ जलाई। तिरंगा झंडा, जिसमें साहस का केसरिया, शांति का सफेद और विकास का हरा रंग समाया है, राष्ट्र की एकता का प्रतीक बन गया। राष्ट्रीय गीत और महात्मा गांधी का चरखा जैसे प्रतीकों ने भी एक सामूहिक पहचान और लक्ष्य का बोध जगाया।
घ. एकता का बल:
राष्ट्रप्रेम की यह लहर स्वतंत्रता संग्राम की रीढ़ की हड्डी थी। विभिन्न समुदायों के लोगों ने धर्म, जाति या भाषा के भेदभाव को भुलाकर साथ खड़े होकर ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती दी। इस एकता ने सत्याग्रह और असहयोग आंदोलनों को ताकत दी। इसने सरकार के दमन को झेला और स्वतंत्रता की आवाज को बुलंद किया। यही साझापन आखिरकार उस महान दिन को लाया, जब भारत ने 15 अगस्त 1947 को अपना तिरंगा गर्व से फहराया।
निष्कर्ष:
राष्ट्रप्रेम की लहर ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक ऐसा मजबूत बंधन बनाया, जिसे तोड़ना किसी के लिए भी संभव नहीं था। साझा इतिहास, संस्कृति और प्रतीकों ने इस एकता को पोषण दिया और भारत को उसकी महान विरासत के प्रति जागरूक किया। यह राष्ट्रप्रेम ही था, जिसने लाखों लोगों को एक सूत्र में पिरोया और भारत को स्वतंत्रता की ओर ले गया।
भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन का इतिहास एक प्रचंड ज्वारभाटे की तरह है, जिसने समाज के हर कोने को छुआ और स्वतंत्रता के बीज बोए। आइए, अब इन जड़ों को एक बार फिर से स्पर्श करें और समझें कि किन महत्वपूर्ण कारकों ने इस राष्ट्रप्रेम को खाद-पानी दिया:
क. अ असंतोष का बीजारोपण: प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका, खिलाफत आंदोलन की चिंता और गांधीजी के नेतृत्व ने भारतीयों में अंग्रेजी हुकूमत के प्रति विद्रोह की लौ जलाई। इन कारकों ने असंतोष को जन्म दिया, जिसने स्वतंत्रता के सपने को और परिपक्व बनाया।
ख. आंदोलनों का तूफान: भारत का स्वतंत्रता संग्राम विभिन्न विचारधाराओं और रणनीतियों का समागम था। उदारवादी सुधारों से लेकर गांधीजी के अहिंसक विरोध और क्रांतिकारियों के सशस्त्र विद्रोह तक, प्रत्येक आंदोलन ने ब्रिटिश शासन को चुनौती दी और जनता को स्वतंत्रता के लक्ष्य के प्रति एकजुट किया।
ग. साझा पहचान का निर्माण: भारत की विविधता ही उसकी सबसे बड़ी ताकत बन गई। साझा इतिहास, संस्कृति और प्रतीकों ने विभिन्न धर्मों, जातियों और भाषाओं के लोगों को एकता के सूत्र में बांधा। इस राष्ट्रप्रेम ने एक सामूहिक पहचान का निर्माण किया और स्वतंत्रता संग्राम को अविचल धारा बना दिया।
घ. स्वतंत्रता के बीजों का फलन-फूलन: 1914 से 1947 तक का यह दौर भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है। इसी दौर में स्वतंत्रता के बीज पनपे, आंदोलनों का तूफान उठा और राष्ट्रप्रेम की लहर में डूबकर भारत ने 15 अगस्त 1947 को अपनी स्वतंत्रता का स्वर्णिम प्रभात देखा।
च. भविष्य के मार्ग के संकेत: स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही भारत का नया सफर शुरू हुआ। आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय और विश्व मंच पर एक स्थायी स्थान बनाने की चुनौती भारत के सामने थी। लेकिन स्वतंत्रता संग्राम से मिली एकता और राष्ट्रप्रेम की भावना ही भविष्य के इस लंबे मार्ग के लिए दिशा और शक्ति प्रदान करती रही।
यह निष्कर्ष मात्र एक विराम है, इस महान इतिहास की अगली कड़ी भारत के उज्ज्वल भविष्य का मार्ग प्रशस्त करती है। भारत का स्वतंत्रता संग्राम न केवल ब्रिटिश शासन से मुक्ति की कहानी है, बल्कि एक राष्ट्र के रूप में एकजुट होने, अपने अतीत पर गर्व करने और भविष्य की ओर आशा भरी निगाहों से देखने की प्रेरणा भी है।