
महाराणा प्रताप सिंह, मेवाड़ के राजा थे जो भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों में से एक हैं। वह 16वीं शताब्दी के भारतीय इतिहास में राजस्थान के मेवाड़ में राज करते थे। उनका जन्म 9 मई 1540 को कुंभलगढ़, मेवाड़ में हुआ था।
राजस्थान के वीर पुत्र महाराणा प्रताप का जन्म यूँ तो जूलियन कैलेंडर के अनुसार 9 मई, 1540 को हुआ था, लेकिन हिंदू पंचांग के अनुसार राणा का जन्म तृतीया, ज्येष्ठ, शुक्ल पक्ष, 1597 विक्रम संवत में हुआ था।
महाराणा प्रताप ने अकबर के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी जिसे हालांकि वह हार गए थे। उन्होंने मुगल सम्राट अकबर को रोक दिया था। इस लड़ाई के बाद उन्होंने उदयपुर से छोड़कर जंगलों में छिपकर रहते हुए गुजरात के कुंभलगढ़ में विरासत में मरने तक जीवन बिताया। महाराणा प्रताप भारतीय इतिहास के एक वीर और उदात्त व्यक्तित्व के रूप में याद किए जाते हैं।
महाराणा प्रताप के माता पिता
महाराणा प्रताप के माता का नाम जयवंता था और उनके पिता का नाम महाराणा उदय सिंह था। वे मेवाड़ के महाराणा थे और महाराणा प्रताप उनके ज्येष्ठ पुत्र थे। महाराणा प्रताप सिंह का जन्म 9 मई 1540 को राजस्थान के. कुम्भलगढ़ में मेवाड़ में महाराणा उदयसिंह के घर हुआ, उनकी माता का नाम महाराणी जयवंताबाई था ।
महाराणा प्रताप की माता महारानी जयवंताबाई
महाराणा उदय सिंह की पहली पत्नी थी, और इनके पुत्र का नाम महाराणा प्रताप था। यह राजस्थान के जालौर की एक रियासत के अखे राज सोंगरा चौहान की बेटी थी। जयवंता बाई उदय सिंह को राजनीतिक मामलों में सलाहें देती थी।

महाराणा प्रताप के भाई बहन
महाराणा प्रताप के दो भाई थे – शक्ति सिंह और उदय सिंह। शक्ति सिंह का जन्म महाराणा उदय सिंह के बाद हुआ था। उदय सिंह ने अपने भाई के साथ काफी लड़ाईयों में हिस्सा लिया था और महाराणा प्रताप की सेना में भी शामिल था।
महाराणा प्रताप की एक बहन थी, जिसका नाम जगमती था। जगमती भी अपने भाई के साथ लड़ने में सक्रिय थी और उन्होंने स्वतंत्र रूप से अपनी सेना चलाकर लड़ाई में हिस्सा लिया था।
शक्ति सिंह और उदय सिंह दोनों अपने भाई के साथ चित्तौड़गढ़ की लड़ाई में शामिल थे जो इतिहास में महत्वपूर्ण होती है। शक्ति सिंह ने बाद में अपने भाई उदय सिंह की मदद करते हुए महाराणा प्रताप की सेना में शामिल हो लिया था।
इतिहासकारों का यह भी कहना है कि महाराणा उदयसिंह के 25 बेटे और 20 बेटियां थीं, जिनमें से प्रताप एक थे।
हळदीघाटी का युद्ध
हळदीघाटी का युद्ध भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण युद्धों में से एक है। यह युद्ध 1576 ईस्वी में मुगल सम्राट अकबर और राजपूत राजा महाराणा प्रताप के बीच हुआ था।
हल्दीघाटी का युद्ध बादशाह अकबर और राजपूत राजा महाराणा प्रताप के बीच लड़ा गया था। महाराणा प्रताप की सेना का नेतृत्व हाकिम हकीम खां और अकबर की सेना का नेतृत्व मान सिंह ने किया था। 1526 में महाराणा प्रताप और अकबर के बीच गोगुन्दा के पास अरावली की पहाड़ी मैं युद्ध हुआ था। जिसमें अकबर के 80 हज़ार से ज्यादा सैनिक और राजपूत के पास उनके मुकाबले केवल 20 हज़ार सैनिक थे। इस युद्ध एक खासियत यह भी थी की इसमें सिर्फ राजपूतों ने ही नहीं बल्कि वनवासी, ब्राह्मण, वैश्य आदि ने भी इस महान युद्ध में अपना बलिदान दिया था।
इस युद्ध की शुरुआत मुगल सेना द्वारा हुई थी, जो महाराणा प्रताप के राज्य में घुसकर अपनी शक्ति को स्थापित करना चाहती थी। मुगल सेना के अगुआई में राजपूत सिपाहियों ने हिंसक विरोध करने के बाद भी समझाने की कोशिश की, लेकिन मुगल सेना ने उनसे लड़ाई की और बड़ी संख्या में सिपाहियों के साथ महाराणा प्रताप की सेना से टकराई।
युद्ध के दौरान मुगल सेना का एक बड़ा हिस्सा भारतीय हथियारों और गुरिला युद्ध तकनीकों के कारण हारा गया था। मुगल सेना के कई अधिकारी और सिपाही भी मारे गए थे।
हालांकि, युद्ध का परिणाम संदिग्ध था, क्योंकि दोनों पक्षों ने एक दूसरे को पूरी तरह से नहीं हराया था। हालांकि, यह युद्ध मुगल सम्राट अकबर के लिए बड़ा नुकसान साबित हुआ।
महाराणा प्रताप की पत्नी अजबदे
महाराणा प्रताप की पत्नी का नाम अजब देवी था। वह राजपूताना के सिसोदिया राजवंश के सदस्य थी। अजब देवी के पति महाराणा प्रताप की दूसरी पत्नी फुलवती देवी थी जिससे उन्हें पाँच बच्चे हुए थे।

अद्ममय शौर्य और पराक्रम के प्रतीक महान प्रतापी महाराणा प्रताप की पहली पत्नी राजकुमारी अजबदेह बनीं थी। महाराणा प्रताप और अजबदेह की शादी के वक्त दोनों की उम्र क्रमश: 17 और 15 वर्ष थी। अजबदेह से ही प्रताप के पुत्र अमर सिंह का जन्म हुआ था।
मेवाड़ के प्रमुख इतिहासकार डॉ. जेके ओझा ने बताया कि मेवाड़ के राजाओं की रानियों, कुंवरों और कुंवरिओं का हाल लेखक बड़वा देवीलाल ने भी अपनी पुस्तक में किया है। इसमें इस बात का भी जिक्र किया है कि महाराणा प्रताप की 14 रानियों में से दूसरी पंवार जी पुरवणी राव मामरख कि बाई अजबदे राव और असरवान की पोती जाका कुंवर अमर सिंह थी। इसी प्रकार पुस्तक युगपुरुष महाराणा प्रताप के लेखक एचएस भाटी ने भी अपनी किताब में ‘अजबदे पंवार असरवान की पोत्री एवं मामरख की पुत्री इनकी कोख से अमर सिंह हुआ’ का वर्णन किया है।
अजब देवी और महाराणा प्रताप की शादी कई राजनीतिक और सामाजिक कारणों से स्थगित की गई थी, लेकिन बाद में उन्होंने एक दूसरे से शादी कर ली। अजब देवी का वर्णन महाराणा प्रताप की जीवनी में कुछ विवरण मिलते हैं, जिनसे हमें उनके बारे में थोड़ी जानकारी मिलती है।
महाराणा प्रताप और अजब देवी के संबंध बड़े ही समझदार थे। अजब देवी ने उनका साथ दीन-दुखी लोगों की सहायता करने में भी दिया था। उन्होंने भी युद्ध में महाराणा प्रताप के साथ साथ लड़ने में मदद की थी।
अजब देवी का जीवन इतिहास बहुत कम जाना जाता है, लेकिन उनके योगदान को याद रखा जाता है। उन्होंने राजपूताना के राजनीतिक और सामाजिक जीवन में अपना योगदान दिया था।
महाराणा प्रताप व भामाशाह
भामाशाह (1542 – लगभग 1598) बाल्यकाल से मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप के मित्र, सहयोगी और विश्वासपात्र सलाहकार थे। अपरिग्रह को जीवन का मूलमंत्र मानकर संग्रहण की प्रवृत्ति से दूर रहने की चेतना जगाने में आप सदैव अग्रणी रहे। मातृ-भूमि के प्रति अगाध प्रेम था और दानवीरता के लिए भामाशाह नाम इतिहास में अमर है।
भामाशाह का निष्ठापूर्ण सहयोग महाराणा प्रताप के जीवन में महत्त्वपूर्ण और निर्णायक साबित हुआ था। मेवाड़ के इस वृद्ध मंत्री ने अपने जीवन में काफ़ी सम्पत्ति अर्जित की थी। मातृ-भूमि की रक्षा के लिए महाराणा प्रताप का सर्वस्व होम हो जाने के बाद भी उनके लक्ष्य को सर्वोपरि मानते हुए भामाशाह ने अपनी सम्पूर्ण धन-संपदा उन्हें अर्पित कर दी। वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति के साथ प्रताप की सेवा में आ उपस्थित हुए और उनसे मेवाड़ के उद्धार की याचना की। माना जाता है कि यह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि उससे वर्षों तक 25,000 सैनिकों का खर्चा पूरा किया जा सकता था।
भामाशाह या भामाराज जी बन्ना (जन्म: 1542 ईसा, मृत्यु: 1600 ईसा) राजस्थान के अजमेर जिले के शाहपुरा गांव से थे। वे महाराणा प्रताप के शासकीय आवास में वित्त मंत्री थे।
भामाशाह एक बहुत ही धनवान व्यवसायी थे जो आर्थिक रूप से महाराणा प्रताप का समर्थन करते थे। वे महाराणा प्रताप को अपनी सेना के लिए धन उपलब्ध कराते थे जो उनकी युद्ध क्षमता को बढ़ाने में मदद करता था।
भामाशाह की यह विशेषता थी कि वे अपनी धन वितरण योजना को बहुत ही सुगम बनाते थे। उन्होंने एक ऐसी संरचना बनाई जिससे लोगों को स्वतंत्र रूप से धन प्रबंधित करने की अनुमति मिलती थी। वे अपनी योजना के तहत लोगों को स्वरोजगार के लिए उद्यमित होने की संभावनाएं प्रदान करते थे।
भामाशाह ने महाराणा प्रताप की सेना के लिए धन उपलब्ध कराने के अलावा, उन्होंने अपने बच्चों के साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी काफी योगदान दिया।
महाराणा प्रताप के सिपहसालार
महाराणा प्रताप के सिपाहीसालार वह बहादुर सेनानी थे जो उनकी सेना के सशस्त्र समर्थन करते थे। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण सिपाहीसालार निम्नलिखित थे:

- हकीम खान सूर: हकीम खान सूर महाराणा प्रताप के समर्थक और सिपाहीसालार थे। वह उनकी सेना में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे और हल्दीघाटी के युद्ध में उनके साथ लड़े थे। हल्दीघाटी युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने वाले योद्धा पठान हाकिम खां सूर, जो कि वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के प्रमुख सेनापतियों में से एक थे। वीरगति को प्राप्त होने के बाद भी इनके हाथ से तलवार नहीं छूटी थी, इसलिए कहते हैं “हल्दीघाटी का पठान वीर, न लगाम छूटी न शमशीर”
- भीमसिंह राणा: भीमसिंह राणा अजमेर के राजा थे और महाराणा प्रताप के दोस्त थे। वे उनकी सेना का समर्थन करते थे और हल्दीघाटी के युद्ध में भी उनके साथ थे।
- रामदास रथोड: रामदास रथोड एक अनुभवी सिपाहीसालार थे और महाराणा प्रताप की सेना के एक महत्वपूर्ण नेता थे। उन्होंने हल्दीघाटी के युद्ध में अपनी शौर्य और समर्थन दिखाया था।
महाराणा प्रताप के किले
महाराणा प्रताप के अधीनस्थ प्रमुख किले-
Chittorgarh Fort History Chittorgarh Fort – चित्तौड़गढ़ किला (चित्तोर दुर्ग )
भारत के विशालतम किलो में से एक है। यह एक वर्ल्ड हेरिटेज साईट भी है। यह किला विशेषतः चित्तोड़, Chittod Ka Kila मेवाड़ की राजधानी के नाम से जाना जाता है। पहले इसपर गुहिलोट का शासन था और बाद में सिसोदिया का शासनकाल था।
चित्तौड़ी राजपूत के सूर्यवंशी वंश ने 7 वी शताब्दी से 1568 तक परित्याग करने तक शासन किया और 1567 में अकबर ने इस किले की घेराबंदी की थी। यह किला 180 मीटर पहाड़ी की उचाई पर बना हुआ है और 691.9 एकर के क्षेत्र में फैला हुआ है। इस किले से जुडी बहु इतिहासिक घटनाये है। आज यह स्मारक पर्यटको के आकर्षण का केंद्र हुआ है।
कुंभलगढ़ किला
कुंभालगढ़ किले की नींव 1443 में रखी गई थी और इसे समुद्र तल से लगभग 1100 फीट की ऊंचाई पर बनाया गया था। इसके दो प्रमुख द्वार होते थे, जिसमें से एक पुराणा हवेली द्वार था और दूसरा नया द्वार था।
कुंभालगढ़ किले में कई भवन, शैलीय वस्तुएं, मंदिर और छतरियाँ होती थीं। इसके अलावा, इस किले में एक खुश्खाल तालाब, दीवान-ए-आम और दीवान-ए-खास जैसे भवन भी होते थे।
महाराणा प्रताप ने कुंभालगढ़ किले में रहते हुए अपने जीवन के बहुत समय व्यतीत किया था और यहां से अपने राज्य को संभालते थे। इसलिए, कुंभालगढ़ किले महाराणा प्रताप के इतिहास और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण संग्रहण स्थल है।
महाराणा प्रताप की नीति
महाराणा प्रताप की नीति अत्यंत उदात्त थी और उन्होंने अपने जीवन में अनेकों दुश्मनों से लड़ाई लड़ी। वे मान्यता से लड़ते थे कि राजा का प्रथम धर्म होता है कि वह अपनी राजधानी की रक्षा करे। यही कारण था कि महाराणा प्रताप ने अकबर से समझौता करने से इंकार कर दिया था, जो उस समय भारत का सबसे शक्तिशाली शासक था।
महाराणा प्रताप ने मुगल सम्राट अकबर के सामने लड़ाई नहीं लड़ी, जिसे कुछ लोग निर्णयहीनता के रूप में देखते हैं, लेकिन वास्तव में यह उनकी बहुमुखी नीति का परिणाम था। वे जानते थे कि अकबर से लड़कर वे हार जाएंगे, इसलिए वे अपनी सेना को घाटी में छिपा कर रखने का फैसला कर गए।
इस नीति से महाराणा प्रताप ने अपनी सेना को बचाया और अपने शासनकाल में राजपूतों की स्वाभिमान और आध्यात्मिकता की अभिव्यक्ति की रक्षा की। वे स्वतंत्रता और अपनी मूल मूल्यों के लिए लड़े थे।
महाराणा प्रताप की सैन्य नीति
प्रताप ने जीवन भर छापामार युद्ध पद्धति से युद्ध किया। उन्होंने जीवन में कभी कोई युद्ध नहीं हारा और अंत तक मुगलों सेना को पिछे हटना पडा । सोशल मिडिया पर पढने को मिलता है कि उनकी तलवार 25 से 30 किलो की थी, उनका भाला 85 किलो का था, यह तथ्य गलत है उनकी तलवार का वजन लगभग तीन से चार किलो का था, उनका भाला छह से सात किलो का था, वे हमेशा अपने पास दो तलवारे रखते थे।
महाराणा प्रताप का चेतक घोड़ा
चेतक महाराणा प्रताप का प्रसिद्ध घोड़ा था, जो 16वीं शताब्दी के दौरान भारत के राजस्थान में मेवाड़ क्षेत्र के शासक थे। चेतक मारवाड़ी नस्ल का घोड़ा था, जो अपनी बहादुरी, वफादारी और दमखम के लिए जाना जाता है।
कहानी यह है कि 1576 में हल्दीघाटी के युद्ध के दौरान, महाराणा प्रताप गंभीर रूप से घायल हो गए थे और उनका घोड़ा चेतक भी युद्ध में घायल हो गया था। अपनी चोटों के बावजूद, चेतक दौड़ता रहा और घायल महाराणा प्रताप को सुरक्षित स्थान पर ले गया। हालाँकि, बाद में चेतक ने दम तोड़ दिया और उसकी मृत्यु हो गई।
चेतक की वफादारी और वीरता ने उसे भारतीय लोककथाओं में साहस और भक्ति का प्रतीक बना दिया है। महाराणा प्रताप को एक महान योद्धा और मुगल साम्राज्य के खिलाफ प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में भी याद किया जाता है, जो उस समय भारत के सबसे शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था।
महाराणा प्रताप पर प्रसिद्ध कविता
महाराणा प्रताप पर कई कविताएं लिखी गई हैं। कुछ प्रसिद्ध कविताओं में से एक है “वीर रस” जो कि लक्ष्मीकांत जी द्वारा लिखी गई है। इसके अलावा, सुरेन्द्र नाथ जी की “चेतक” नामक कविता भी महाराणा प्रताप पर लिखी गई है। वैसे भी, महाराणा प्रताप से सम्बंधित कविताएं अनेक लोकप्रिय हैं और उनमें से कुछ अन्य उल्लेखनीय कविताएं हैं।
महाराणा प्रताप पर एक सुंदर कविता
मैं तो वीर हूँ, मैं तो वीर हूँ, वीरता मेरी जो न जाने, उसका क्या उदाहरण दूँ? मैं तो वीर हूँ, मैं तो वीर हूँ, माँ बचाए तो माँ बचाऊँ, दुश्मन बचाए तो दुश्मन भी बचाऊँ, वीरता मेरी जो न जाने, उसका क्या उदाहरण दूँ? मैं तो वीर हूँ, मैं तो वीर हूँ।
शत्रुओं की लड़ाई में जान देना, अपनी जान की फिक्र न करना, अगर मैं न जीत पाया तो नहीं हूँ हारा, वीरता मेरी जो न जाने, उसका क्या उदाहरण दूँ? मैं तो वीर हूँ, मैं तो वीर हूँ।
परमात्मा की ओर से मिली वीरता है, वीरता अगर मैं खो दूँ तो मैं क्या हूँ? अगर मैं न जीत पाया तो क्या हारा हूँ? वीरता मेरी जो न जाने, उसका क्या उदाहरण दूँ? मैं तो वीर हूँ, मैं तो वीर हूँ।
कन्हैया लाल सेठिया की प्रताप पर लिखी गई एक श्रेष्ठ कविता | “हरे घास री रोटी ‘ (Hare Ghas ri Roti)
‘अरे घास री रोटी ही , जद बन बिलावडो ले भाग्यो।
नान्हो सो अमरियो चीख पड्यो,राणा रो सोयो दुख जाग्यो।।
अरे घास री रोटी ही
हुँ लड्यो घणो , हुँ सहयो घणो, मेवाडी मान बचावण न।
हुँ पाछ नहि राखी रण में, बैरयां रो खून बहावण में।
जद याद करुं हल्दीघाटी , नैणां म रक्त उतर आवै।
सुख: दुख रो साथी चेतकडो , सुती सी हूंक जगा जावै।।
अरे घास री रोटी ही।।
पण आज बिलखतो देखुं हूं , जद राज कंवर न रोटी न
हुँ क्षात्र धरम न भूलूँ हूँ , भूलूँ हिन्दवाणी चोटी न
महलां म छप्पन भोग झका , मनवार बीना करता कोनी
सोना री थालियां, नीलम रा बजोट बीना धरता कोनी
अरे घास री रोटी ही
ऐ हा झका धरता पगल्या , फूलां री कव्ली सेजां पर
बै आज फिरे भुख़ा तिरसा , हिन्दवाण सुरज रा टाबर
आ सोच हुई दो टूट तडक , राणा री भीम बजर छाती
आँख़्यां में आंसु भर बोल्या , में लीख़स्युं अकबर न पाती
पण लिख़ूं कियां जद देखूँ हूं , आ राडावल ऊंचो हियो लियां
चितौड ख़ड्यो ह मगरा में ,विकराल भूत सी लियां छियां
अरे घास री रोटी ही
म झुकूं कियां है आण मन , कुल रा केसरिया बाना री
म बूज्जू कियां हूँ शेष लपट , आजादी र परवना री
पण फेर अमर री सुण बुसकयां , राणा रो हिवडो भर आयो
म मानुं हूँ तिलीसी तन , सम्राट संदेशो कैवायो
राणा रो कागद बाँच हुयो , अकबर रो सपनो सौ सांचो
पण नैण करो बिश्वास नही ,जद बांच-बांच न फिर बांच्यो
अरे घास री रोटी ही
कै आज हिमालो पिघल भयो , कै आज हुयो सुरज शीतल
कै आज शेष रो सिर डोल्यो ,आ सौच सम्राट हुयो विकल्ल
बस दूत ईशारो जा भाज्या , पिथल न तुरन्त बुलावण न
किरणा रो पिथठ आ पहुंच्यो ,ओ सांचो भरम मिटावण न
अरे घास री रोटी ही
बीं वीर बांकूड पिथल न , रजपुती गौरव भारी हो
बो क्षात्र धरम को नेमी हो , राणा रो प्रेम पुजारी हो
बैरयां र मन रो कांटो हो , बिकाणो पुत्र करारो हो
राठोङ रणा म रह्तो हो , बस सागी तेज दुधारो हो
अरे घास री रोटी ही
आ बात बादशाह जाण हो , घावां पर लूण लगावण न
पिथल न तुरन्त बुलायो हो , राणा री हार बंचावण न
म्है बान्ध लियो है ,पिथल सुण, पिंजर म जंगली शेर पकड
ओ देख हाथ रो कागद है, तु देख्यां फिरसी कियां अकड
अरे घास री रोटी ही
मर डूब चुंठ भर पाणी म , बस झुठा गाल बजावो हो
प्रण टूट गयो बीं राणा रो , तूं भाट बण्यो बिड्दाव हो
म आज बादशाह धरती रो , मेवाडी पाग पगां म है
अब बता मन,किण रजवट र, रजपूती खून रगा म है
अरे घास री रोटी ही
जद पिथठ कागद ले देखी , राणा री सागी सेनाणी
नीचै से सुं धरती खसक गयी, आँख़्या म भर आयो पाणी
पण फेर कही तत्काल संभल, आ बात सपा ही झुठी है
राणा री पाग सदा उंची , राणा री आण अटूटी है
अरे घास री रोटी ही
ल्यो हुकम हुव तो लिख पुछं , राणा र कागद र खातर
ले पूछ भल्या ही पिथल तू ,आ बात सही, बोल्यो अकबर
म्है आज सुणी ह , नाहरियो श्यालां र सागे सोवे लो
म्है आज सुणी ह , सुरज डो बादल री ओट्यां ख़ोवे लो
म्है आज सुणी ह , चातकडो धरती रो पाणी पीवे लो
म्है आज सुणी ह , हाथीडो कुकर री जुण्यां जीवे लो |
म्है आज सुणी ह , थक्या खसम, अब रांड हुवे ली रजपूती
म्है आज सुणी ह , म्यानां म तलवार रहवैली अब सुती
तो म्हारो हिवडो कांपे है , मुछ्यां री मौड मरोड गयी
पिथल न राणा लिख़ भेजो , आ बात कठ तक गिणां सही.
अरे घास री रोटी ही
पिथठ र आख़र पढ्तां ही , राणा री आँख़्यां लाल हुई
धिक्कार मन मै कायर हुं , नाहर री एक दकाल हुई
हुँ भूख़ मरुँ ,हुँ प्यास मरुँ, मेवाड धरा आजाद रहे
हुँ भोर उजाला म भट्कुं ,पण मन म माँ री याद रहे
हुँ रजपुतण रो जायो हुं , रजपुती करज चुकावुंला
ओ शीष पडै , पण पाग़ नही ,पीढी रो मान हुंकावूं ला
अरे घास री रोटी ही
पिथल क ख़िमता बादल री,जो रोकै सुर्य उगाली न
सिंहा री हातल सह लेवै, बा कूंख मिली कद स्याली न
धरती रो पाणी पीवे ईसी चातक री चूंच बणी कोनी
कुकर री जूण जीवेलो हाथी री बात सुणी कोनी ||
आ हाथां म तलवार थकां कुण रांड कवै है रजपूती
म्यानां र बदलै बैरयां री छातां म रेवली सुती ||
मेवाड धधकतो अंगारो, आँध्याँ म चम – चम चमकलो
कडक र उठ्ती ताना पर, पग पग पर ख़ांडो ख़ड्कै लो
राख़ो थे मुछ्यां ऐंठेडी, लोही री नदीयां बहा दयुंलो
हुँ अथक लडुं लो अकबर सूं, उज्ड्यो मेवाड बसा दूलो
जद राणा रो शंदेष गयो पिथल री छाती दूणी ही
हिन्दवाणो सुरज चमको हो, अकबर री दुनिया सुनी ही
–कवि कन्नहैयालाल सेठिया