महात्मा ज्योतिबा फुले एक दूरदर्शी समाज सुधारक और भारत के एक प्रमुख विचारक थे जिन्होंने भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका जन्म 1827 में महाराष्ट्र, भारत में हुआ था, और वे शुरुआती नेताओं में से एक थे जिन्होंने जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ी और महिलाओं की शिक्षा और सशक्तिकरण की वकालत की।
भारतीय समाज में फुले का सबसे महत्वपूर्ण योगदान समाज पर जाति व्यवस्था की पकड़ को समाप्त करने का उनका प्रयास था। उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना की, एक सामाजिक संगठन जिसका उद्देश्य निचली जातियों का उत्थान करना और उनके अधिकारों और सम्मान को सुनिश्चित करना था। उन्होंने लड़कियों और दलितों के लिए कई स्कूल भी स्थापित किए, जिन्हें उस समय क्रांतिकारी माना जाता था।

फुले एक विपुल लेखक थे और उन्होंने जाति व्यवस्था, महिलाओं के अधिकार और शिक्षा के महत्व सहित विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर विस्तार से लिखा। उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें, जिनमें “गुलामगिरी” और “सार्वजनिक सत्यधर्म” शामिल हैं, ने रूढ़िवादी ब्राह्मणवादी परंपराओं को चुनौती दी और एक अधिक समतावादी और न्यायपूर्ण समाज की वकालत की।
फुले की विरासत भारतीयों की उन पीढ़ियों को प्रेरित करती है जो सामाजिक न्याय, समानता और मानवाधिकारों के लिए प्रयास करती हैं। भारतीय समाज में उनका योगदान और “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” (जनता के कल्याण और खुशी के लिए) का उनका दर्शन आज भी प्रासंगिक है।
भारत के महान समाज सुधारक और प्रसिद्ध विचारक महात्मा ज्योतिबा फुले की आज 28 नवंबर 2022 को 132वीं पुण्य तिथि मनाई जा रही है। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म महाराष्ट्र के पुणे में 11 अप्रैल 1827 को हुआ। उन्हें महात्मा फुले और ज्योतिबा फुले के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने जातिवाद के खिलाफ कई आंदोलन चलाए। उन्होंने किसानों, निचली जातियों और महिलाओं की शिक्षा के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी। समाज सुधारक विट्ठलराव कृष्णजी वंदेकर ने ज्योतिबा फुले को महात्मा की उपाधि दी थी। अपने पूरे जीवन में लड़कियों की शिक्षा और महिलाओं के अधिकारों के लिए कई आंदोलन चलाए। उन्हें भारत में पहला हिन्दू अनाथालय की स्थापना का श्रेय दिया जाता है।
महात्मा ज्योतिराव गोविंदराव फुले
(जन्म – 11 अप्रैल 1827,
मृत्यु – 28 नवम्बर 1890)
ज्योतिबा फूले के नाम से प्रचलित 19वीं सदी के एक महान भारतीय विचारक, समाज सेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे। सितम्बर 1873 में इन्होने महाराष्ट्र में सत्यशोधक समाज नामक संस्था का गठन किया। महिलाओं व शूद्रों के उत्थान के लिय इन्होंने अनेक कार्य किए। समाज के सभी वर्गो को शिक्षा प्रदान करने के ये प्रबल समथर्क थे।
आरंभिक जीवन
महात्मा ज्योतिबा फुले का जन्म 1827 ई. में पुणे में हुआ था। उनका परिवार कई पीढ़ी पहले सतारा से पुणे आकर फूलों के गजरे आदि बनाने का काम करने लगा था। इसलिए माली के काम में लगे ये लोग ‘फुले’ के नाम से जाने जाते थे। ज्योतिबा ने कुछ समय पहले तक मराठी में अध्ययन किया, बीच में पढाई छूट गई और बाद में 21 वर्ष की उम्र में अंग्रेजी की सातवीं कक्षा की पढाई पूरी की। इनका विवाह 1840 में सावित्री बाई से हुआ, जो बाद में स्वयं एक मशहूर समाजसेवी बनीं। शूद्र व स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में दोनों पति-पत्नी ने मिलकर काम किया।
विचारधारा
ज्योतिबा फुले भारतीय समाज में प्रचलित जाति आधारित विभाजन और भेदभाव के खिलाफ थे।
कार्यक्षेत्र
उन्होंने विधवाओं और महिलाओं के कल्याण के लिए काफी काम किया। उन्होंने इसके साथ ही किसानों की हालत सुधारने और उनके कल्याण के लिए भी काफी प्रयास किये।महात्मा फुले ने 1848 में वंचित वर्गो के बालक-बालिकाओं के लिए और स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा ने 1851 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था।इससे पहले शूद्रों, अतिशुद्रों एवं स्त्रियों को पढ़ाना पाप माना जाता था । लड़कियों को पुरूष अध्यापक तो कतई नहीं पढ़ा सकते थे ऐसे में जब लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री को इस योग्य बना दिया। उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए।
महात्मा की उपाधि
शूद्रों और निर्बल वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ज्योतिबा ने ‘सत्यशोधक समाज’ स्थापित किया। उनकी समाज सेवा देखकर 1888 ई. में मुंबई की एक विशाल सभा में उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी।
ज्योतिबा ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया और इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली। वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे। अपने जीवन काल में उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखीं- तृतीय रत्न, छत्रपति शिवाजी, राजा भोसला का पखड़ा, ब्राह्मणों का चातुर्य, किसान का कोड़ा, अछूतों की कैफियत. महात्मा ज्योतिबा व उनके संगठन के संघर्ष के कारण सरकार ने ‘एग्रीकल्चर एक्ट’ पास किया. धर्म, समाज और परम्पराओं के सत्य को सामने लाने हेतु उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखी
जाति से बहिष्कृत
अछूतोद्धार के लिए ज्योतिबा ने उनके अछूत बच्चों को अपने घर पर पाला और अपने घर की पानी की टंकी उनके लिए खोल दी। परिणामस्वरूप उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया गया। कुछ समय तक एक मिशन स्कूल में अध्यापक का काम मिलने से ज्योतिबा का परिचय पश्चिम के विचारों से भी हुआ, पर ईसाई धर्म ने उन्हें कभी आकृष्ट नहीं किया। 1853 में पति-पत्नी ने अपने मकान में प्रौढ़ों के लिए रात्रि पाठशाला खोली। इन सब कामों से उनकी बढ़ती ख्याति देखकर प्रतिक्रियावादियों ने एक बार दो हत्यारों को उन्हें मारने के लिए तैयार किया था, पर वे ज्योतिबा की समाजसेवा देखकर उनके शिष्य बन गए।
ज्योतिबा राव फुले का जीवन-दर्शन,
(Philosophy of Jyotiba Rao Phule )
जोतिबा राव फुले ने एक बार कहा था- ”परमेश्वर एक है और सभी मानव उसकी संतान हैं । उस परमपिता की भक्ति और पूजा के लिए न तो किसी विशेष व्यक्ति की आवश्यकता है और न ही किसी विशेष स्थान आदि की । शिक्षा स्त्री और पुरुष दोनों के लिए समान रूप से आवश्यक है ।” उनका मानना था कि धर्म का उद्देश्य आत्मिक विकास ही नहीं, बल्कि मानवता की सेवा करना भी है ।उल्लिखित विचारों को आधार बनाकर ज्योतिबा राव फुले ने *सन् 1873 में ‘सत्य शोधक समाज’ की स्थापना की । ‘सत्य शोधक समाज’ ने बौद्धिक विकास, सांस्कृतिक उत्थान और न्याय की स्थापना के लिए जन-आंदोलन आरंभ किया ।* वे मानव-मात्र की समानता के समर्थक थे । जाति, पंथ, धर्म, संप्रदाय, लिंग, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर होनेवाले भेदभाव के प्रबल विरोधी थे ।
बहुत कम लोग इस तथ्य से परिचित होंगे कि महात्मा गांधी से पूर्व महाराष्ट्र में एक ऐसे महान् समाज-सुधारक पैदा हुए थे, जिन्होंने जाति-पांति, अस्पृश्यता, अशिक्षा आदि सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने और किसानों की स्थिति सुधारने और समाज में महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने का उल्लेखनीय कार्य किया था ।
जीवन और कार्य
उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय समाज अंधविश्वासी परंपराओं तथा नवीन विचारों के द्वंद्व में उलझा हुआ था । एक ही मानव-समूह सैकड़ों जातियों- उपजातियों में विभक्त था । प्रत्येक जाति के अपने अलग संस्कार और रीति-रिवाज थे ।
ऐसे ही विषमता भरे परिवेश में पूना की धरती पर एक किसान गोविंद राव के घर एक महान् बालक का जन्म हुआ । उस बालक-यानी ज्योति राव का जन्म महाराष्ट्र के जिला सतारा के गाँव ‘काटगूँ’ में 11 अप्रैल, 1827 को ‘सावता माली’ की जाति में हुआ था ।
‘सावता माली’ महाराष्ट्र की संत-परंपरा में एक श्रेष्ठ नाम है । उनके परिवार में माली का काम होता था। उनकी माता का नाम विमलाबाई था और पिता का नाम गोविंद राव।जन्म के बाद बालक का नाम ज्योति राव रखा गया ।उनका एक भाई था, जिनका नाम राजाराम था । ज्योति राव की आयु जब 1 वर्ष की थी तब उनकी माता का शरीरांत हो गया । उनके पालन-पोषण के लिए सगुणाबाई नामक एक दासी की व्यवस्था की गई । 07 वर्ष की आयु में उन्हें गाँव की एक पाठशाला में प्रवेश दिलाया गया । तब का समाज ज्योति राव की जाति को अत्यंत हेय दृष्टि से देखा करता था । भारी दबाव पड़ने के कारण ज्योतिराव को उस पाठशाला से बाहर कर दिया गया। ज्योतिराव परिश्रमी तो थे ही, कुछ समय वे अपने पिता के कार्यों में सहयोग देते और कुछ समय निकालकर अपनी पुस्तकें पढ़ते । उनके पिता अंतिम पेशवा के यहाँ बागवानी का काम करते थे । माली का काम करने के कारण उन्हें ‘फूल’ कहा गया । आगे चलकर फूल का ‘फुले ’ हो गया, जो उनके परिवार का उपनाम बन गया । सन् 1840 में 13 वर्ष की आयु में ‘नाय’ नामक गाँव के खंडोजी ने नेबसे पाटिल की 8 वर्षीया पुत्री सावित्रीबाई के साथ उनका विवाह कर दिया । गोविंद राव को लोगों ने समझाया-तुम्हारा पुत्र मेधावी और प्रतिभाशाली है । उसके अध्ययन कार्य को आगे बढ़ाओ । गोविंद राव ने लोगों की बातें मान लीं । इस प्रकार 3 वर्षों तक अध्ययन से वंचित रहने के बाद सन् 1841 में ‘स्काटिश मिशन के हाई स्कूल’ में ज्योतिबा को प्रवेश दिला दिया ।
उन्होंने बड़े ध्यान और मनोयोग से अध्ययन किया । ज्योतिबा अपने स्कूल में सदा ‘सर्वप्रथम’ आया करते थे । उन दिनों निर्धन और शूद्रों-पतितों की सामाजिक स्थिति दयनीय थी । उन पर अत्याचार प्राय: होते रहते थे । अधिकांश महिलाओं के साथ तो प्रत्येक स्तर पर बल-प्रयोग किया जाता था ।बालिकाओं की बचपन में ही शादी हो जाने के कारण वे अशिक्षित बनी रहती थीं । कम उम्र के कारण उनका न तो मानसिक विकास हो पाता था और न ही शरीरिक । उन्हें घर की चहारदीवारी में कैद कर दिया जाता था । बचपन अथवा युवावस्था में विधवा हो जाने पर वे हर ओर से तिरस्कार और उपेक्षा की पात्र बनती थीं ।
19 नवंबर, 1852 को ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन ने पुणे महाविद्यालय के प्राचार्य मेजर कंठी के द्वारा एक भव्य समारोह में 200 रुपए का महावस्त्र और श्रीफल प्रदान कर ज्योतिबा का सम्मान किया । सन् 1852 में ही ज्योतिबा ने शूद्रों-पतितों के लिए एक वाचनालय की स्थापना भी की ।
इसके पूर्व वाचनालय की व्यवस्था मात्र उच्च जातियों के लिए थी 17 फरवरी, 1852 को उनके विद्यालय में विद्यार्थियों की खुली परीक्षा ली गई । उस समय सैकड़ों की संख्या में स्त्री-पुरुष एकत्र थे । सन् 1855 में, ज्योतिबा ने देश के प्रथम संध्याकालीन विद्यालय की स्थापना की ।17 अक्तूबर, 1857 को उनके विद्यालय का निरीक्षण-कार्य आरंभ हुआ । प्रख्यात वैयाकरण और मराठी स्कूलों के विभागीय सचिव दादोबा पांडुरंग तरबंडकर निरीक्षक थे । दादोबा ज्योतिबा के विद्यालयों का अनुशासन, वहाँ की शिक्षा-पद्धति तथा विद्यार्थी और शिक्षक समुदाय की परस्पर आत्मीयता को देखकर हतप्रभ रह गए । इतना आनंददायी वातावरण !
वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे। उन्होंने अपनी परीक्षण-पंजिका में ज्योतिबा के विद्यालयों की गति-प्रगति की शानदार टिप्पणी की । ज्योतिबा का विद्यालय थोड़े ही समय में अत्यंत लोकप्रिय हो गया। विद्यार्थियों की संख्या तीव्र गति से बढ़ती जा रही थी; स्थान की कमी होती जा रही थी । ज्योतिबा को नया विद्यालय खोलने के लिए कोई हिंदू जमीन देने को तैयार नहीं था ।
अंत में पुराने विद्यालय की गली में एक मुसलमान-परिवार ने ज्योतिबा को विद्यालय बनवाने के लिए अपनी जमीन दे दी । 03 जुलाई, 1857 को बुधवार पेठ, पूना के निवासी अन्ना अण्णा साहब चिपलूणकर के विशाल भवन में ज्योतिबा ने मात्र बालिकाओं के लिए एक विद्यालय में अध्ययन-अध्यापन का कार्य आरंभ कराया ।
अपने ढंग का यह विद्यालय ‘भारत का प्रथम’ विद्यालय था । फुले दंपती ने ये सारे कार्य बिना कोई शुल्क लिये किए । ज्योतिबा ने सन् 1863 में एक ‘बाल हत्या प्रतिबंधक’ की स्थापना की । कोई भी विधवा वहाँ जाकर अपने बच्चे को जन्म दे सकती थी । उसका नाम और उसकी देखभाल गुप्त रखी जाती थी ।
24 सितंबर, 1873 को स्थापित ‘सत्य शोधक समाज’ के ज्योतिबा प्रथम अध्यक्ष और कोषाध्यक्ष बने । इस समाज का एकमात्र उद्देश्य था- ‘अस्पृश्यों पर होनेवाले धार्मिक और सामाजिक अन्याय या विरोध’।
‘सत्य शोधक समाज’ की निम्नलिखित मान्यताएँ थीं-
- भक्त और भगवान् के बीच किसी ‘बिचौलिये’ की कोई आवश्यकता नहीं ।
- बिचौलियों द्वारा लादी गई धार्मिक दासता को नष्ट करना ।
- सभी जातियों के स्त्री-पुरुषों को शिक्षा उपलब्ध कराना । ज्योतिबा ने शूद्रों-पतितों, किसानों, श्रमिकों तथा अन्य सर्वहारा वर्ग की दबी आवाज को उभारने के उद्देश्य से जनवरी 1877 में एक साप्ताहिक समाचार-पत्र का प्रकाशन और संपादन शुरू किया । उस समाचार-पत्र का नाम ‘दीनबंधु’ था । उन्होंने किसानों और श्रमिकों की संतोषजनक स्थिति और उनकी उपयुक्त मांगों के लिए उन्हें एकजुट होकर संघर्ष करने के लिए प्रेरित, शिक्षित और संगठित किया । 19 अक्टूबर 1882 को ज्योतिबा ने ‘हंटर कमीशन’ के समक्ष लिखित रूप में अपना वक्तव्य दिया था । उसमें उन्होंने निम्नलिखित विषय-बिंदुओं पर विशेष रूप से बल दिया था- I. ग्रामीण क्षेत्रों के लिए स्वतंत्र शिक्षा-व्यवस्था हो । II. गणित, इतिहास, भूगोल, व्याकरण का प्रारंभिक ज्ञान कराया जाए । III. कृषि संबंधीं हर तरह का ज्ञान दिया जाए । IV. सामान्य ज्ञान, नीति तथा आरोग्य का ज्ञान भी दिया जाए । सन् 1883 मे उन्होंने ‘सत्सार’ नामक एक लघु पुस्तक का प्रणयन किया । यह वही पुस्तक थी, जिसमें ज्योतिबा ने हिंदू-कर्मकांड में निहित गर्हित, गलित और संकीर्ण मान्यताओं-परंपराओं पर युक्ति-युक्त कुठाराघात किया था । उन्होंने अपनी पुस्तक ‘किसान का कोड़ा’ में किसानों में व्याप्त अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, धर्मभीरुता, साहूकारों की अतिवादिता तथा अन्यान्य विसंगतियों पर समुचित प्रकाश डाला है । ज्योतिबा के 61 वर्ष तथा सामाजिक व सार्वजनिक जीवन के 40 वर्ष पूर्ण करने पर मई 1886 में एक विशाल जनसमुदाय के मध्य इस युगपुरुष को ‘महात्मा’ की उपाधि से समलंकृत किया गया । जुलाई 1888 में ज्योतिबा पक्षाघात से पीड़ित हो गए । उनके शरीर का दायाँ भाग निष्क्रिय हो गया । फिर भी उनकी सक्रियता बनी रही । उन्होंने बाएँ हाथ से ही लिखकर अपनी पुस्तक ‘सार्वजनिक सत्य-धर्म’ को अंतिम रूप दिया । दिसंबर 1888 में वे पुन: पक्षाघात के शिकार हो गए । अंतत: 28 नवंबर, 1890 को उनका देहावसान हो गया । ज्योतिबा की कोई संतान नहीं थी । उन्होंने एक विधवा ब्राह्मणी के पुत्र को ‘दत्तक पुत्र’ के रूप में अंगीकार किया । वही बालक डॉ. यशवंत राव आगे चलकर ज्योतिबा का उत्तराधिकारी बना । भारत के प्रथम प्रधानमंत्री
पं. जवाहरलाल नेहरू ने बंबई में ‘फुले माध्यमिक विद्यालय’ का उद्घाटन करते हुए महात्मा ज्योतिबा फूले की पुण्य स्मृति में कहा था:
“जिस जमाने में महात्मा फुले ने स्त्री और शूद्र-शिक्षा के प्रसार तथा अस्पृश्यता निवारण के लिए तीव्र संघर्ष किया, वह जमाना बहुत कठिन था ।” ऐसे कार्यों के लिए कहीं से सहायता मिलना संभव नहीं था । भारतीय लोकतंत्र में स्त्री, दलित-शोषित, किसान तथा श्रमिकों की जैसे-जैसे उन्नति होगी वैसे-वैसे महात्मा फूले का व्यक्तित्व अधिकाधिक उभरकर सामने आएगा । महाराष्ट्र के एक किसान परिवार में जन्मे महात्मा फुले देश में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत रहे हैं । गांधीजी उन्हें ‘सच्चा महात्मा’ कहा करते थे तथा उन्हें अपना प्रेरणा-स्रोत मानते थे । बाबा साहेब अंबेडकर उनके सामाजिक दर्शन से प्रभावित ही नहीं थे बल्कि उन्हें भगवान् बुद्ध और कबीर गुरुओं के साथ अपना ‘तीसरा गुरु’ मानते थे।”
महात्मा ज्योतिबा फुले के अनमोल विचार (Mahatma Jyotiba Phule Quotes)
- 1.शिक्षा, स्त्री और पुरुष की प्राथमिक आवश्यकता है।
- 2. सच्ची शिक्षा दूसरों को सशक्त बनाने और दुनिया को उस दुनिया से थोड़ा बेहतर छोड़ने का प्रतीक है जो हमने पाया है।
- 3. हमारे जीवन में हर दिन नए विचार आते हैं, लेकिन असली संघर्ष उन्हें साकार करने में है।
- 4. भारत में राष्ट्रीय भावना तब तक मजबूत नहीं होगी, जब तक भोजन और विवाह पर जातिगत प्रतिबंध बरकरार रहेगा।
- 5. संसार का निर्माणकर्ता एक पत्थर विशेष या स्थान विशेष तक ही सीमित नहीं हो सकता है।
- 6. ईश्वर एक है और वो ही सभी लोगों का कर्ताधर्ता है।
- 7. जातिगत और लिंग के आधार पर किसी के साथ भेदभाव करना महापाप है।
- 8. अच्छे काम करने के लिए कभी भी गलत उपायों का सहारा नहीं लेना चाहिए।
- 9. अगर कोई आपकी किसी भी तरह से सहायता करता है तो उससे मुंह मत मोड़िए। Advertisement
- 10. आपके संघर्ष में शामिल होने वालों से उसकी जाति मत पूछिए।
- 11. स्वार्थ अलग अलग रुप धारण करता है, कभी जाति का तो कभी धर्म का।
- 12. शिक्षा के बिना समझदारी खो गई, समझदारी के बिना नैतिकता खो गई , नैतिकता के बिना विकास खो गया, धन के बिना शूद्र बर्बाद हो गया, शिक्षा महत्वपूर्ण है।
- 13. सभी प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठ है और सभी मनुष्यों में नारी श्रेष्ठ है। स्त्री और पुरुष जन्म से ही स्वतंत्र है, इसलिए दोनों को सभी अधिकार सामान रूप से भोगने का अवसर मिलना चाहिए।
- 14. जिंदगी की गाड़ी अकेले दो पहियों पर नही चलती, इसे गति सिर्फ तभी मिलती है जब मजबूत कड़ियां जुडती है।
- 15.धर्म वह है जो समाज के हित में, समाज के कल्याण के लिए है, जो धर्म समाज के हित में नही है, वह धर्म नही है।
- महात्मा ज्योतिबा फुले कौन थे महात्मा ज्योतिबा फुले हमारे देश के एक महान समाज सुधारक, लेखक, दार्शनिक और क्रांतिकारी कार्यकर्ता थे। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों जैसे जातिगत भेदभाव, छुआछूत, बाल विवाह आदि का घोर विरोध किया और साथ ही नारी शिक्षा और विधवा विवाह का समर्थन किया था। अपने जीवन में कई संघर्षों के बाद महात्मा ज्योतिबा फुले का स्वस्थ लगतर बिगड़ने लगा। कई लंबी बीमारियों से जूझने के बाद 28 नवंबर 1890 को पुणे में उनका निधन हो गया। उनके निधन से देश में शोक की लहर दौड़ गई। ऐसे महान नायक को हम शत-शत नमन करते हैं।