(जन्म: संवत् 1730 वि. निधन 1824 वि.)
रीतिकालीन काव्य परम्परा में विशिष्ट स्थान रखने वाले कवि देव का जन्म विक्रम संवत 1730 वि. में हुआ। इन ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि ये इटावा के रहने वाले थे। इस
संबंध में एक उक्ति प्रचलित है-
“धीस-रिया कवि देव को नगर इटावो वास”
इनके पिता का नाम कुछ विद्वान बिहारीलाल दुबे मानते हैं। इनके वंशज वर्तमान में इटावा और कुसमरा में रहते हैं।
देव की रचनाओं की संख्या 62 कही जाती है किन्तु इनकी प्रमुख और प्राप्त रचनाओं में भावविलास भवानीविलारा, कुशलविलास, रसविलास, काव्य रसायन, देवचरित्र, अष्टयाम, सुजानविनोद, प्रेमतरंग आदि हैं। देव ने भी कशव की भाँति कवि और आचार्य कर्म का निर्वाह किया था। उनके काव्य में श्रृंगार रस का उछल प्रवाह बहता है। यह श्रृंगारिकता छिछली नहीं अपितु उसमें विशेष गंभीरता विद्यमान है। अलंकारों के स्वाभाविक प्रयोग के प्रति उनका आग्रह था। देव ने साहित्यिक ब्रजभाषा को अपनाया था पस्तु उसमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, फारसी तथा उत्तर भारत की अन्य बोलियों के शब्दों का स्वतंत्रता से प्रयोग मिलता है।
इस प्रकार कवि देव काव्य सृष्टि और आचार्य दृष्टि के कारण ऐसे महाकवि है, जिन्होंने तत्कालीन सामाजिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों में हिन्दी साहित्य को अमूल्य ग्रन्थ रत्न प्रदान किए।
यहाँ निर्धारित कविता में देव ने अपने आश्य मे श्रीकृष्ण का गुणकथन किया है। सांवरिया श्रीकृष्ण के पाँवों से घुंगुरू के मधुर स्वर अंकृत हो रहे हैं। वे पीत वस्त्र में सुहावने लग रहे हैं। माथे पर मोर मुकुट है। नयन चंचल हैं। मंद हँसी चेहरे पर शोभायमान है। कृष्ण के लोक प्रचलित स्वरूप को कवि ने अभिधा में रामग्रता से उपस्थित कर दिया है। देव को पेचीले गजमून की बुनावट में नियुमत्ता हासिल थी। दूसरे पद्य में उन्होंने मौलिकतापूर्वक कृष्ण की जादुई सूरत में गोपिकाओं के विवश समर्पण का वर्णन किया है। तीसरा पद्य स्मृति एवं स्वप्न कविता का संगम है। नायिका का स्वप्निल संसार उसके जागते ही खो जाता है। स्वप्न में सुखद मिलन है और जागरण में जुदाई। यह विडम्बना ही कविता की मौलिकता एवं खूबसूरती है।
मायनि नूपुर मंजु बजे, कटि किंकिनि में चुनि की मधुराई सागरे अंग लसे पट पीत, हिये हुलस्तै गन माल सुहाई ।। भाषे किरीट हड्डे दृग चंचल, मंद हिंसी मुख चंद जुन्हाई। यी जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्री ब्रज-दूलह देव-सहाई ।।
धार में चाय बैंसी निरुधार हुदै जाय फैसी, उकर्सी न अबेरी। री अंगराम गिरीं गहरी, गाह, फेरे फिरों औ घिरी नहीं घेरी ।। देव काटू अपनो बस ना, रस-लालच लाल चितै भयीं घेरी। बेगि ही बुद्धि गयी पवियाँ, अखियाँ मधु की मखियाँ गयीं मेरी।।
झहरि झड़रि झीनी बूंद है परति मानो,
પહરિ શહરિ થતા પેરી કે મળમ મેં आनि कयो स्थान मो सौ चली भूलिने को जाजु फूली ना समानी, मई ऐसी हाँ मगन मैं ।। चाहति उठ्योई, उड़ि गई सो निगोड़ी नींद, सोय गए भाग मेरे जागि या जगन में। ऑखि खोलि देखें तो घन हैं ना घनस्याम वई छायी बूँदें मेरे, आँसू हवै पुगन में।।
मायनि नूपुर मंजु बजे
अर्थ:
मधुर घुंघरू मधुर स्वर कर रहे हैं, कमर पर बंधी घुंघरू भी मधुरता से बज रही हैं। समुद्र के समान नीले रंग का शरीर पीले वस्त्र से शोभित हो रहा है। हृदय पर माला हिल रही है। मस्तक पर मुकुट, हड्डी में नयन चंचल हैं, मंद मुस्कान चाँद जैसा मुख चमका रही है। यह जग-मंदिर का दीपक, ब्रज का दूल्हा, देवता-सहायक श्री कृष्ण सुंदर हैं।
धार में चाय बैंसी निरुधार
अर्थ:
बांसुरी की धारा बिना रुके बहती जा रही है, ऊपर भी नहीं रुकती। हे, अंगों में गहरी नींद गिर गई है, बार-बार चक्कर लगाती हैं, घिर नहीं पातीं। देव कहते हैं, चैन नहीं कट रहा है, रस की लालच लाल रंग की मक्खियाँ बनकर आँखों को घेर गईं। जल्दी ही बुद्धि पवन हो गई, आँखें मधु की मक्खियाँ बन गईं।
झहरि झड़रि झीनी बूंद
अर्थ:
पतली बूंदें गिर रही हैं मानो मैंने शहर परी बनकर मलहम लाकर अपने सब दुखों की जगह पर लगा दिया है। किसी को भूलकर जादू नहीं फूली, मैं ऐसी मग्न हूँ।
चाहति उठ्योई
अर्थ:
चाहती हुई नींद उठ गई, मेरे भाग सो गए। जागकर इस जग में आँखें खोलकर देखती हूँ तो बादल नहीं हैं, घनश्याम वही छाए हुए हैं। मेरे आँसू हवा पोंछ रही है।
यह कविता देव की रचना “भावविलास” से ली गई है। इसमें कवि ने श्रीकृष्ण के प्रति अपनी भक्ति और प्रेम का भाव व्यक्त किया है।
यह कविता निम्नलिखित विशेषताओं के लिए प्रसिद्ध है:
यह कविता हिंदी साहित्य की एक महत्वपूर्ण रचना है।
कठिन शब्दार्य
अभ्यासार्थ प्रश्न
1. कवि देव का जन्म स्थान है—
(क) इटावा
(ख) सीरों
(ग) रुनुकता
(घ) अज्ञात
2. चहरी-घहरी घटा में कौन-सा शब्दालंकार है?
(क) रूपक
(ख) उपमा
(ग) अनुप्रास
(घ) यमक
अतिलघुत्तरात्मक प्रश्न
3. श्री ब्रजदूलह की संज्ञा किसे प्रदान की गई है? रस की लालची और दासी कौन हो गई है?
4. श्याम ने किसे झूला झूलने के लिए आमंत्रित किया?
5. नायिका के भाग क्यों सो गये?
6. नेत्रों को मधुमक्खी के समान क्यों बताया गया है?
7. जै जग मंदिर दीपक सुंदर से कवि का क्या तात्पर्य है?
8. काव्यांश के आधार पर कृष्ण के तौन्दर्य का वर्णन कीजिए।
निबंयात्मक प्रश्न
9. पठित्तांश के आधार पर देव की काव्यगत विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
10. निम्नलिखित पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-
(क) पौरानि नूपुर मंजु वर्णे, कटि किंकिनि में धूनि की मधुराई जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्री ब्रज-दूलह देव-सहाई ।।
(ख) चाहति उठ्योई, उड़ि गई सो निगोड़ी नींद वेई छायी बूंदें
मेरे आँसु हवै दृगन में।।
प्रश्न एवम उत्तर
1. (क) इटावा
2. (ग) अनुप्रास
3. श्री ब्रजदूलह की संज्ञा कृष्ण को प्रदान की गई है। रस की लालची और दासी नायिका हो गई है।
4. श्याम ने अपनी प्रियतमा को झूला झूलने के लिए आमंत्रित किया।
5. नायिका के भाग सो गए क्योंकि वह कृष्ण के प्रेम में पागल हो गई थी।
6. नेत्रों को मधुमक्खी के समान इसलिए बताया गया है क्योंकि वे मधु की लालच में कृष्ण के रूप का पान करने के लिए उत्सुक हैं।
7. “जै जग मंदिर दीपक सुंदर” से कवि का तात्पर्य है कि कृष्ण जग के मंदिर का दीपक हैं, जो जग को प्रकाशित करते हैं।
8. काव्यांश के आधार पर कृष्ण के तौन्दर्य का वर्णन इस प्रकार है:
9. देव की काव्यगत विशेषताएं इस प्रकार हैं:
10. निम्नलिखित पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-
(क) पौरानि नूपुर मंजु वर्णे, कटि किंकिनि में धूनि की मधुराई
जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्री ब्रज-दूलह देव-सहाई ।।
(ख) चाहति उठ्योई, उड़ि गई सो निगोड़ी नींद
सोय गए भाग मेरे जागि या जगन में।
ऑखि खोलि देखें तो घन हैं ना घनस्याम वई छायी बूँदें
मेरे आँसू हवै पुगन में।।
**(क) पौरानि नूपुर मंजु वर्णे, कटि किंकिनि में धूनि की मधुराई
जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्री ब्रज-दूलह देव-सहाई ।।**
व्याख्या:
इस पंक्ति में कवि श्रीकृष्ण के सौंदर्य का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि श्रीकृष्ण के पैरों में बंधे घुंघरू मधुर ध्वनि कर रहे हैं, जो जग-मंदिर के दीपक की तरह सुंदर हैं।
पौरानि नूपुर मंजु वर्णे: मधुर ध्वनि करने वाले घुंघरू
कटि किंकिनि में धूनि की मधुराई: कमर में बंधी घुंघरू की मधुर ध्वनि
जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर: जो जग-मंदिर के दीपक की तरह सुंदर हैं
श्री ब्रज-दूलह: ब्रज के दूल्हा
देव-सहाई: देवता-सहायक
**(ख) चाहति उठ्योई, उड़ि गई सो निगोड़ी नींद
सोय गए भाग मेरे जागि या जगन में।
ऑखि खोलि देखें तो घन हैं ना घनस्याम वई छायी बूँदें
मेरे आँसू हवै पुगन में।।**
व्याख्या:
इस पंक्ति में नायिका अपनी वेदना का वर्णन करती है। वह कहती है कि उसकी नींद उड़ गई है और उसके भाग सो गए हैं। जब वह आँखें खोलकर देखती है तो उसे बादल नहीं दिखते हैं, बल्कि उसके आँसू हवा में उड़ रहे हैं।
चाहति उठ्योई: नींद उड़ गई
सो निगोड़ी नींद: वेदनापूर्ण नींद
सोय गए भाग मेरे: मेरे भाग सो गए
जागि या जगन में: इस जग में जागकर
ऑखि खोलि देखें: आँखें खोलकर देखें
घन हैं ना: बादल नहीं हैं
घनस्याम वई: श्याम रंग की
छायी बूँदें: बूंदें छा गई हैं
मेरे आँसू हवै पुगन में: मेरे आँसू हवा में उड़ रहे हैं