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NCERT कक्षा 10 सामाजिक विज्ञान अध्याय 1: बेल्जियम और श्रीलंका में सत्ता साझाकरण का विश्लेषण

कक्षा 10 समाज शास्त्र: अध्याय “सत्ता का बंटवारा

बेल्जियम और श्रीलंका, श्रीलंका में बहुसंख्यवाद, बेल्जियम की समझदारी, सत्ता की साझेदारी क्यों जरूरी है? सत्ता की साझेदारी के रूप

प्रस्तावना

हमारे लोकतांत्रिक देश में शासन का कोई सिंहासन नहीं होता, बल्कि सत्ता एक साझी ज़िम्मेदारी होती है. इसी साझी ज़िम्मेदारी को बनाए रखने के लिए “सत्ता का बंटवारा” बेहद ज़रूरी है. इस अध्याय में हम इस महत्वपूर्ण अवधारणा को गहराई से समझेंगे.

सत्ता का बंटवारा क्या है?

सरल शब्दों में कहें तो समाज के विभिन्न समूहों या वर्गों के बीच सत्ता के अधिकारों और ज़िम्मेदारियों को उचित रूप से बांटने की प्रक्रिया को सत्ता का बंटवारा कहते हैं. ये समूह धर्म, भाषा, नस्ल, क्षेत्र या विचारधारा के आधार पर अलग-अलग हो सकते हैं. सत्ता का बंटवारा किसी भी लोकतंत्र के सुचारू संचालन के लिए बेहद ज़रूरी है. आइए देखते हैं क्यों:

सत्ता के बंटवारे का महत्त्व:

  • विविधता का सम्मान: भारत जैसे बहु-जातीय, बहु-धार्मिक देश में हर समूह की आवाज़ को सुना जाना ज़रूरी है. सत्ता का बंटवारा सुनिश्चित करता है कि किसी एक समूह द्वारा ज़्यादती न हो और सभी को सत्ता में भागीदारी का अवसर मिले.
  • सामाजिक न्याय और स्थिरता: जब सभी समूहों को सत्ता में भागीदारी का एहसास होता है, तो सामाजिक न्याय कायम होता है और देश में स्थिरता बनी रहती है. अन्याय और असंतोष के बग़ैर समाज का विकास तीव्र गति से होता है.
  • बेहतर निर्णय-निर्माण: विभिन्न पृष्ठभूमि से आने वाले लोग अलग-अलग दृष्टिकोण पेश करते हैं, जिससे बेहतर निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया में सहायता मिलती है. सत्ता का बंटवारा सुनिश्चित करता है कि समाज के सभी पहलुओं पर विचार किया जाए.

केस स्टडी: बेल्जियम

बेल्जियम एक पश्चिमी यूरोपीय देश है जहां सत्ता के बंटवारे का एक अनूठा मॉडल अपनाया गया है. इसे समझने के लिए पहले हमें इसकी भौगोलिक और जातीय संरचना पर नज़र डालनी होगी.

भौगोलिक और जातीय संरचना:

बेल्जियम को दो मुख्य भाषाई समुदायों में विभाजित किया गया है: फ़्लेमिश (डच भाषा बोलने वाले) जो उत्तरी भाग में रहते हैं, और वालून (फ़्रेंच भाषा बोलने वाले) जो दक्षिणी भाग में रहते हैं. इसके अलावा, एक छोटा जर्मन-भाषी समुदाय भी पूर्वी सीमा पर रहता है.

जातीय संघर्ष का ऐतिहासिक संदर्भ:

19वीं सदी के उत्तरार्ध में फ़्लेमिश समुदाय को आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित महसूस होने लगा था. उन्होंने फ्रेंच के वर्चस्व के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिए. यह संघर्ष 1960 के दशक में अपने चरम पर पहुंच गया, जिससे देश में जातीय तनाव बढ़ गया.

बेल्जियम का समाधान मॉडल:

इस संघर्ष को शांत करने के लिए बेल्जियम सरकार ने सत्ता के बंटवारे का एक अभिनव मॉडल अपनाया. इस मॉडल के कुछ प्रमुख तत्व इस प्रकार हैं:

  • सरकार के विभिन्न स्तरों के बीच सत्ता का विभाजन: बेल्जियम को संघीय, क्षेत्रीय और स्थानीय सरकारों में विभाजित किया गया है. प्रत्येक स्तर के पास अलग-अलग ज़िम्मेदारियां हैं और निर्णय लेने की स्वायत्तता है.
  • विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच सत्ता का बंटवारा: सरकार के शीर्ष पदों पर फ़्लेमिश और वालून समुदायों के लोगों का आनुपातिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया है. इसके अलावा, शिक्षा, संस्कृति और भाषा जैसे मामलों में सामाजिक समूहों को स्वायत्तता दी गई है.

इस मॉडल के परिणामस्वरूप बेल्जियम में जातीय तनाव काफी कम हुआ है और दोनों मुख्य समुदायों को सरकार में भागीदारी का एहसास होता है. हालांकि, चुनौतियां अभी भी बनी हुई हैं, जैसे कि दोनों समुदायों के बीच आर्थिक असमानता और भाषा का मुद्दा.

सबक:

बेल्जियम का उदाहरण यह दर्शाता है कि कैसे सत्ता के बंटवारे का एक रचनात्मक मॉडल जातीय संघर्ष को कम कर सकता है और एक देश को स्थिर और समृद्ध बना सकता है.

आशा है यह स्पष्टीकरण बेल्जियम के सत्ता-बंटवारे मॉडल को समझने में आपकी सहायता करेगा.

केस स्टडी: श्रीलंका

श्रीलंका भले ही हिंद महासागर का एक खूबसूरत द्वीप देश है, लेकिन यहां का इतिहास जातीय तनाव और संघर्षों से जुड़ा हुआ है. आइए जानें कि कैसे इसकी भौगोलिक और जातीय संरचना ने सत्ता के बंटवारे के असंतुलित तरीके के कारण देश में तनाव की जड़ें जमा लीं.

भौगोलिक और जातीय संरचना:

श्रीलंका में दो प्रमुख जातीय समूह हैं: सिंहली (74%) जो बहुसंख्यक हैं और मुख्य रूप से द्वीप के मध्य और दक्षिण भाग में निवास करते हैं, और तमिल (18%) जो अल्पसंख्यक हैं और उत्तर और पूर्वी क्षेत्रों में केंद्रित हैं. इसके अलावा, एक मुस्लिम और एक छोटा स्वदेशी आदिवासी समुदाय भी मौजूद है.

जातीय तनावों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

स्वतंत्रता के बाद से सिंहली राजनेताओं ने बहुसंख्यक आबादी के आधार पर सत्ता पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश की. इसने सत्ता के असंतुलित बंटवारे की समस्या पैदा की, जिससे तमिल समुदाय में असंतोष बढ़ गया.

बहुसंख्यकवाद (Majoritarianism):

  • 1956 की सिंहली केवल राजभाषा अधिनियम ने तमिल भाषा को दरकिनार कर दिया, जिससे तमिलों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में कम प्रतिनिधित्व मिला.
  • बोध धर्म को सरकारी संरक्षण दिया गया, जिससे अन्य धर्मों के अनुयायियों को हाशिए पर महसूस हुआ.
  • सिंहली-बहुसंख्यक क्षेत्रों में भूमि वितरण ने तमिल किसानों के लिए आर्थिक अवसरों को सीमित कर दिया.

तमिल अल्पसंख्यक पर प्रभाव और परिणामी संघर्ष:

इन नीतियों ने तमिल समुदाय के बीच सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अलगाव का अहसास बढ़ाया, जिससे 1970 के दशक में LTTE के रूप में ज्ञात अलगाववादी समूह के उदय और एक खूनी गृहयुद्ध का रास्ता तय हुआ. यह संघर्ष दशकों तक चला और हजारों लोगों की जानें गई.

सबक:

श्रीलंका का उदाहरण दर्शाता है कि कैसे असंतुलित सत्ता का बंटवारा और बहुसंख्यकवाद की नीतियां अल्पसंख्यक समुदायों के लिए अन्याय और संघर्ष का कारण बन सकते हैं. यह बताता है कि सत्ता के बंटवारे में समावेशी और न्यायसंगत तरीके का इस्तेमाल कितना महत्वपूर्ण है.

हमें यह याद रखना चाहिए कि देश की स्थिरता और समृद्धि सभी समुदायों की भागीदारी और समानता पर निर्भर करती है. सत्ता के बंटवारे की जिम्मेदारी केवल सरकार की ही नहीं है, बल्कि समाज का हर नागरिक इसमें योगदान दे सकता है.

बेल्जियम और श्रीलंका की सत्ता-बंटवारे और संघर्ष-समाधान की तुलनात्मक विश्लेषण

बेल्जियम और श्रीलंका दोनों ही जातीय विविधता वाले देश हैं, लेकिन उन्होंने सत्ता-बंटवारे और संघर्ष-समाधान की अलग-अलग रणनीतियां अपनाई हैं, जिसके परिणाम भी भिन्न रहे हैं. आइए दोनों देशों के दृष्टिकोणों की तुलना करें:

सत्ता-बंटवारे के दृष्टिकोण:

बेल्जियम: एक समावेशी और सहकारी दृष्टिकोण अपनाया गया है. सत्ता को क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर तरीके से विभाजित किया गया है, जिससे विभिन्न सामाजिक समूहों को सरकार के विभिन्न स्तरों पर भागीदारी का अवसर मिलता है. उदाहरण के लिए, संघीय कैबिनेट में फ़्लेमिश और वालून दोनों समुदायों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं.

Belgium country map with flag

श्रीलंका: एक बहुसंख्यकवादी दृष्टिकोण अपनाया गया था. सिंहली बहुमत ने सत्ता पर प्रभुत्व जमाया और तमिल अल्पसंख्यक को हाशिए पर रखा गया. सरकारी नीतियों ने सिंहली भाषा और संस्कृति को प्राथमिकता दी, जिससे तमिलों में असंतोष बढ़ा.

Sri Lanka country map with flag

संघर्ष-समाधान के दृष्टिकोण:

  • बेल्जियम: संघर्ष को कम करने के लिए रियायतों और समझौतों का रास्ता अपनाया गया. दोनों समुदायों की संस्कृति और भाषाओं को मान्यता दी गई और उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए प्रयास किए गए.
  • श्रीलंका: सरकार ने सैन्य बल का इस्तेमाल कर तमिल विद्रोह को कुचलने की कोशिश की. इसका परिणाम एक लंबा और खूनी गृहयुद्ध हुआ, जिससे हजारों लोगों की जानें गई.

परिणाम:

  • बेल्जियम: सत्ता-बंटवारे के मॉडल ने जातीय तनाव को कम करने और देश की सामाजिक और आर्थिक स्थिरता को बनाए रखने में काफी हद तक सफलता प्राप्त की है. हालाँकि, चुनौतियां अभी भी बनी हुई हैं, जैसे कि दोनों समुदायों के बीच आर्थिक असमानता का मुद्दा.
  • श्रीलंका: सरकार की नीतियों ने अल्पसंख्यक तमिलों के बीच असंतोष को बढ़ा दिया, जिससे गृहयुद्ध हुआ. गृहयुद्ध के खत्म होने के बाद भी तमिल समुदाय को राजनीतिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर महसूस होता है.

सबक:

दोनों देशों की तुलना से यह स्पष्ट होता है कि समावेशी और न्यायसंगत सत्ता-बंटवारे के दृष्टिकोण जातीय तनाव को कम करने और संघर्षों को रोकने में अधिक प्रभावी होते हैं. बहुसंख्यकवाद की नीतियां अल्पसंख्यकों के लिए अन्याय का कारण बन सकती हैं और देश की स्थिरता को खतरे में डाल सकती हैं.

यह महत्वपूर्ण है कि बहु-जातीय देश सत्ता के बंटवारे के ऐसे मॉडल विकसित करें जो सभी समुदायों को शामिल करें और उनकी आवाज़ को सुने. इससे सामाजिक न्याय, समानता और देश की दीर्घकालिक स्थिरता सुनिश्चित होगी.

हमें यह याद रखना चाहिए कि शांति और समृद्धि केवल तभी संभव है जब सभी नागरिकों को सत्ता में भागीदारी का समान अवसर मिले.

सत्ता-साझा क्यों आवश्यक है?

  1. संघर्ष कम करना और स्थिरता बढ़ाना: जब सत्ता एक ही समूह के हाथों में होती है, तो अन्य समूहों में उपेक्षा का भाव और असंतोष बढ़ सकता है। इससे हिंसा और संघर्ष हो सकता है। सत्ता-साझा के जरिए विभिन्न समूहों को सरकार में हिस्सा मिलता है, जिससे उनका असंतोष कम होता है और देश में शांति और स्थिरता का माहौल बनता है।
  2. विविधता का सम्मान और निष्पक्ष प्रतिनिधित्व: भारत एक बहु-जातीय, बहु-धार्मिक और बहु-भाषी देश है। अगर केवल एक ही समूह की आवाज सरकार में सुनी जाए, तो अन्य समूहों की संस्कृति, परंपराओं और जरूरतों की अनदेखी हो सकती है। सत्ता-साझा के जरिए विभिन्न समूहों के प्रतिनिधि सरकार में शामिल होते हैं, जिससे सभी की आवाज सुनी जाती है और फैसले सभी के हितों को ध्यान में रखकर लिए जाते हैं।
  3. लोकतंत्र की गुणवत्ता बढ़ाना: एक उम्दा लोकतंत्र में केवल बहुमत का ही नहीं, बल्कि अल्पसंख्यकों का भी सम्मान और सुरक्षा होती है। जब सत्ता एक ही समूह के हाथों में होती है, तो बहुमत के दबाव में अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन हो सकता है। सत्ता-साझा के जरिए अल्पसंख्यकों को भी निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल किया जाता है, जिससे सत्ता का दुरुपयोग कम होता है और लोकतंत्र की गुणवत्ता बढ़ती है।

संक्षेप में: सत्ता-साझा से ना सिर्फ संघर्ष कम होता है और देश मजबूत बनता है, बल्कि यह विविधता का सम्मान करता है और सभी नागरिकों को निष्पक्ष प्रतिनिधित्व देता है। इससे लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा होती है और सत्ता की गुणवत्ता में भी सुधार आता है।

सत्ता-साझा के रूप (Forms of Power-Sharing)

सत्ता-साझा किसी भी समाज में शक्ति को विभिन्न समूहों और स्तरों के बीच बांटने की प्रक्रिया है। भारत जैसे बहु-जातीय और बहु-धार्मिक देश में सत्ता-साझा लोकतंत्र को मजबूत करने और सभी नागरिकों को न्याय दिलाने के लिए बेहद जरूरी है। सत्ता-साझा के चार मुख्य रूप हैं:

1. क्षैतिज सत्ता-साझा (Horizontal Distribution of Power):

यह सरकार के विभिन्न अंगों के बीच सत्ता का बंटवारा है। भारत में, कार्यपालिका (Executive), विधायिका (Legislature) और न्यायपालिका (Judiciary) के बीच शक्तियों का एक स्पष्ट विभाजन है।

Horizontal Distribution of Power in India
  • कार्यपालिका: सरकार का वह अंग जो नीतियों को लागू करता है। भारत में, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद कार्यपालिका का हिस्सा हैं।
  • विधायिका: सरकार का वह अंग जो कानून बनाता है। भारत में, संसद (लोक सभा और राज्य सभा) और राज्य विधानसभाएं विधायिका का हिस्सा हैं।
  • न्यायपालिका: सरकार का वह अंग जो कानूनों की व्याख्या करता है और न्याय प्रदान करता है। भारत में, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट न्यायपालिका का हिस्सा हैं।

क्षैतिज सत्ता-साझा यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी अंग अत्यधिक शक्तिशाली न हो और शक्ति का दुरुपयोग न हो सके।

2. ऊर्ध्वाधर सत्ता-साझा (Vertical Distribution of Power):

यह केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों के बीच सत्ता का बंटवारा है। भारत में, संविधान के द्वारा शक्तियों को सूचीबद्ध किया गया है कि कौन से विषयों पर केंद्र सरकार कानून बना सकती है, कौन से विषयों पर राज्य सरकारें कानून बना सकती हैं, और कौन से विषयों पर स्थानीय निकाय निर्णय ले सकते हैं।

Vertical Distribution of Power in India

ऊर्ध्वाधर सत्ता-साझा यह सुनिश्चित करता है कि स्थानीय मुद्दों पर निर्णय स्थानीय स्तर पर ही लिए जाएं, जिससे लोगों की भागीदारी बढ़ती है और सरकार का कामकाज अधिक कुशल बनता है।

3. विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच सत्ता-साझा (Power-Sharing Among Different Social Groups):

यह विभिन्न धर्मों, जातियों, भाषाओं और क्षेत्रों के लोगों को सरकार में प्रतिनिधित्व देने की प्रक्रिया है। भारत में, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है, जिससे इन समूहों के लोगों को सरकार में भाग लेने का अवसर मिलता है।

Power Sharing Among Different Social Groups in India

सामाजिक समूहों के बीच सत्ता-साझा यह सुनिश्चित करता है कि सभी समूहों की आवाज सुनी जाए और उनकी जरूरतों का ध्यान रखा जाए।

4. राजनीतिक दलों, दबाव समूहों और आंदोलनों में सत्ता-साझा (Power-Sharing in Political Parties, Pressure Groups, and Movements):

यह विभिन्न राजनीतिक दलों, दबाव समूहों और आंदोलनों को सरकार में निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल करने की प्रक्रिया है। भारत में, विपक्षी दलों को संसद और विधानसभाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का अवसर दिया जाता है।

Power Sharing in Political Parties, Pressure Groups

राजनीतिक दलों, दबाव समूहों और आंदोलनों में सत्ता-साझा यह सुनिश्चित करता है कि सरकार की नीतियां विभिन्न हितधारकों की जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाई जाएं।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सत्ता-साझा की कोई एक आदर्श प्रणाली नहीं है। विभिन्न देशों और समाजों में सत्ता-साझा के अलग-अलग रूप हो सकते हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)

  1. सत्ता-साझा के प्रमुख बिंदुओं का सारांश:
  • संघर्ष कम करना और स्थिरता बढ़ाना।
  • विविधता का सम्मान और निष्पक्ष प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना।
  • लोकतंत्र की गुणवत्ता बढ़ाना।
  • क्षैतिज, ऊर्ध्वाधर, सामाजिक और राजनीतिक स्तरों पर शक्ति का बंटवारा।
  1. समकालीन राजनीति में सत्ता-साझा का महत्व:
  • बहु-जातीय और बहु-धार्मिक समाजों में स्थिरता लाना।
  • अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करना।
  • लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करना।
  • सरकार की जवाबदेही बढ़ाना।
  1. लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में विविधता के समायोजन पर चिंतन:
  • विभिन्न समूहों को सरकार में शामिल करना।
  • सभी के विचारों और जरूरतों पर ध्यान देना।
  • संवाद और समझौता पर जोर देना।
  • भेदभाव और बहिष्कार से बचना।

संक्षेप में: सत्ता-साझा समकालीन लोकतंत्रों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। यह हमें न केवल संघर्षों से बचने और शांति का वातावरण बनाने में मदद करता है, बल्कि सभी नागरिकों को निष्पक्ष प्रतिनिधित्व और न्याय भी दिलाता है। विविधता के प्रति सम्मानजनक रवैया अपनाकर ही हम एक मजबूत और समावेशी लोकतंत्र का निर्माण कर सकते हैं।