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संसाधन और विकास: एक भौगोलिक दृष्टिकोण (NCERT कक्षा 10 सामाजिक विज्ञान)

संसाधन और विकास (क्लास 10 सामाजिक विज्ञान NCERT, भूगोल)

संसाधन और विकास (क्लास 10 सामाजिक विज्ञान NCERT, भूगोल) by shalasaral

1. संसाधनों का परिचय

संसाधन क्या है?

  • वे सभी चीजें जिन्हें हम अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए उपयोग कर सकते हैं, संसाधन कहलाती हैं।
  • संसाधन प्राकृतिक रूप से मिल सकते हैं या उन्हें हम बना सकते हैं।
  • वे हमारे जीवन को बेहतर बनाने में, विकास को बढ़ावा देने में मदद करते हैं।

संसाधनों के प्रकार:

  • प्राकृतिक संसाधन: ये प्रकृति द्वारा हमें दिए गए संसाधन हैं, जैसे जमीन, जल, वनस्पति, खनिज आदि।
  • मानव-निर्मित संसाधन: ये हम मनुष्यों द्वारा बनाए गए संसाधन हैं, जैसे सड़कें, इमारतें, उपकरण, मशीनें आदि।
  • मानव संसाधन: ये हमारे मानवीय कौशल, ज्ञान, प्रतिभा और श्रम जैसे गुण हैं। ये अन्य सभी संसाधनों का उपयोग करने और विकास को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी हैं।

नवीकरणीय बनाम गैर-नवीकरणीय संसाधन:

  • नवीकरणीय संसाधन: ये संसाधन प्राकृतिक रूप से पुनःपूर्ति हो जाते हैं और इनका दोहन किया जा सकता है। जैसे सूर्य का प्रकाश, हवा, पानी, पौधे आदि।
  • गैर-नवीकरणीय संसाधन: ये संसाधन एक बार उपयोग करने के बाद पुनःपूर्ति नहीं हो पाते हैं। जैसे खनिज तेल, कोयला, धातु आदि। इनका उपयोग सावधानी से करना बहुत जरूरी है।

संसाधन और विकास का आपस में गहरा संबंध है। संसाधनों का बुद्धिमानी से उपयोग करके हम एक विकसित समाज का निर्माण कर सकते हैं। लेकिन संसाधनों का अत्यधिक दोहन हमें भविष्य में समस्याओं का सामना करा सकता है। इसलिए संसाधनों का संरक्षण और उनका दक्षतापूर्वक उपयोग बहुत महत्वपूर्ण है।

संसाधन विकास

संसाधन विकास by shalasaral

संसाधन विकास उन सभी क्रियाओं को संदर्भित करता है जिनका उपयोग हम संसाधनों के उपयोग को अधिकतम करने, उनकी दक्षता बढ़ाने और उन्हें समाज के लाभ के लिए उपलब्ध कराने के लिए करते हैं। इसका मतलब है कि न केवल संसाधनों का दोहन करना, बल्कि उनका प्रबंधन भी करना, उनका संरक्षण करना और उनका बुद्धिमानी से उपयोग करना है।

संसाधन विकास की अवधारणा:

  • संसाधन विकास संसाधनों को उपलब्ध कराने और उनका उपयोग करने के तरीके में सुधार लाने की एक सतत प्रक्रिया है।
  • इसमें प्रौद्योगिकी का उपयोग, संसाधन प्रबंधन योजनाओं का निर्माण, संसाधन संरक्षण उपायों को लागू करना और सामाजिक-आर्थिक विकास को बढ़ावा देना शामिल है।
  • इसका उद्देश्य लोगों की जीवनशैली में सुधार करना, आर्थिक विकास को बढ़ावा देना और पर्यावरण की रक्षा करना है।

सतत संसाधन उपयोग:

  • सतत संसाधन उपयोग भविष्य की पीढ़ियों के लिए संसाधनों को बचाने के लिए वर्तमान पीढ़ी द्वारा संसाधनों के उपयोग का प्रबंधन है।
  • इसमें नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग उनकी नवीकरण दर के भीतर करना, और गैर-नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग कम करना शामिल है।
  • पुनर्चक्रण, पुन: उपयोग और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग सतत संसाधन उपयोग के महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं।

प्रकृति, प्रौद्योगिकी और संस्थानों के बीच संबंध:

relationship between nature technology and institutions By ShalaSaral

  • ये तीनों कारक संसाधन विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • प्रकृति: हमें संसाधन प्रदान करती है। हमारी जरूरतों के अनुसार इनका उपयोग कैसे किया जाए, यह सीखना हमारा दायित्व है।
  • प्रौद्योगिकी: संसाधनों के दोहन, प्रबंधन और संरक्षण में हमारी सहायता करती है। नए आविष्कार संसाधनों के अधिक कुशल उपयोग की अनुमति देते हैं।
  • संस्थान: कानून, नियम और नीतियां बनाते हैं जो संसाधन उपयोग को नियंत्रित करते हैं। वे विकास गतिविधियों को भी निर्देशित करते हैं।

उदाहरण के लिए, सौर ऊर्जा पैनल प्रौद्योगिकी का एक उदाहरण है जो हमें सूर्य के प्रकाश से बिजली उत्पन्न करने की अनुमति देता है, जो एक नवीकरणीय संसाधन है। साथ ही, सरकारें पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधियों को रोकने के लिए कानून बना सकती हैं, जैसे कि वनों की कटाई।

प्रकृति, प्रौद्योगिकी और संस्थानों के बीच एक मजबूत और सकारात्मक संबंध संसाधन विकास को सफल बनाने के लिए आवश्यक है। इनका संतुलन बनाकर हम एक ऐसा समाज बना सकते हैं जो समृद्ध, टिकाऊ और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील हो।

भूमि संसाधन

भूमि संसाधन by shalasaral

भूमि संसाधन का महत्व

भूमि हमारे सबसे महत्वपूर्ण संसाधनों में से एक है। यह न केवल हमें रहने का स्थान प्रदान करती है, बल्कि यह कई अन्य तरीकों से भी हमारे लिए महत्वपूर्ण है:

  • खाद्य उत्पादन: कृषि, जो कि हमारे भोजन का स्रोत है, भूमि पर निर्भर करती है।
  • जल संसाधन: भूमि वर्षा जल संचय में मदद करती है और भूजल का पुनर्भरण करती है।
  • वन और जैव विविधता: जंगल और प्राकृतिक वातावरण भूमि पर निर्भर होते हैं, जो पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • खनिज संपदा: खनिज और धातु भूमि के अंदर पाए जाते हैं और हमारे उद्योग और विकास के लिए जरूरी हैं।
  • बुनियादी ढांचा विकास: सड़क, रेलवे, बस्तियां और अन्य बुनियादी ढांचे का निर्माण भूमि पर ही किया जाता है।

भूमि उपयोग

भूमि उपयोग का तात्पर्य भूमि के विभिन्न उद्देश्यों के लिए प्रयोग करने से है। भारत में निम्नलिखित तरीकों से भूमि का उपयोग किया जाता है:

  • कृषि भूमि: भारत में सबसे अधिक भूमि का उपयोग कृषि के लिए किया जाता है।
  • वन भूमि: भारत में लगभग 22% भूभाग वनों से आच्छादित है।
  • बंजर भूमि: इसमें वह भूमि शामिल है जो खेती के लिए उपयुक्त नहीं है।
  • चरागाह भूमि: पशुओं को चराने के लिए इसका उपयोग किया जाता है।
  • आवासीय और औद्योगिक भूमि: इनमें शहरों और उद्योगों के लिए उपयोग की जाने वाली भूमि शामिल है।

भारत में भूमि उपयोग का पैटर्न

भारत में भूमि उपयोग का पैटर्न असमान है। कुछ क्षेत्रों में कृषि के लिए अधिक भूमि उपयोग की जाती है, जबकि अन्य क्षेत्रों में शहरीकरण और औद्योगिक विकास के कारण कृषि भूमि घट रही है।

भूमि क्षरण और संरक्षण उपाय

भूमि क्षरण भूमि की उर्वरता और उत्पादकता कम करने की प्रक्रिया है। यह कई कारकों के कारण हो सकता है, जैसे कि वनों की कटाई, अत्यधिक चराई, खराब कृषि प्रथाएं और मृदा अपरदन।

भूमि क्षरण को रोकने के लिए कई उपाय किए जा सकते हैं, जैसे कि:

  • वनों की कटाई रोकना और वनीकरण करना:
  • सही कृषि प्रथाओं को अपनाना: जैसे फसल चक्र प्रणाली, मृदा संरक्षण तकनीकें, जैविक खेती।
  • चरागाह भूमि का प्रबंधन: पशुओं के चरने पर सीमा लगाना और चरागाह भूमि का पुनर्वसन करना।
  • भूमि को बंजर होने से बचाना: वृक्षारोपण और मृदा सुधार तकनीकें अपनाना।

भूमि संसाधन का संरक्षण और उसका बुद्धिमानी से उपयोग हमारे भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। हमें अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए भूमि का उपयोग करते समय उसकी उत्पादकता और गुणवत्ता बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए।

मृदा संसाधन

मृदा संसाधन by shalasaral

मृदा का निर्माण

मृदा एक जटिल मिश्रण है जो कई कारकों, जैसे चट्टानों का अपक्षय, वनस्पति का विघटन, जलवायु, समय और जैविक गतिविधियों के सहयोग से बनती है। मृदा निर्माण की प्रक्रिया में कई चरण शामिल होते हैं:

  1. अपक्षय: चट्टानें तापमान परिवर्तन, पानी, हवा और जैविक एजेंटों के कारण टूटकर छोटे कणों में बदल जाती हैं।
  2. मृदा निर्माण कारक: जलवायु, वनस्पति, समय और जैविक गतिविधियाँ मिट्टी के बनावट, रंग और संघटन को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए, अधिक वर्षा वाली जलवायु में रासायनिक अपक्षय तेज होता है, जिससे मिट्टी अधिक उर्वरक बनती है।
  3. जैविक गतिविधियाँ: पौधे अपने जड़ों से खनिजों को अवशोषित करते हैं और उन्हें कार्बनिक पदार्थों में बदलते हैं। मृत पौधे और जानवर विघटित होकर मिट्टी को पोषक तत्व प्रदान करते हैं।

मृदा के प्रकार

मृदा को कई कारकों के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसे कि बनावट, रंग, रासायनिक संघटन और जलवायु। भारत में पाए जाने वाले कुछ प्रमुख मृदा प्रकारों में शामिल हैं:

  • भूरी मिट्टी: ये भारत के सबसे व्यापक मृदा प्रकारों में से एक हैं और इन्हें काले कपास मिट्टी के रूप में भी जाना जाता है। ये ज्वालामुखी लावा अपक्षय से बनती हैं और कृषि के लिए उपयुक्त हैं।
  • रेतीली मिट्टी: ये रेत के कणों से बनी हल्की मिट्टी हैं और पोषक तत्वों को बनाए रखने में कम प्रभावी हैं। ये शुष्क क्षेत्रों में पाई जाती हैं।
  • लाल मिट्टी: ये मिट्टी लोहे की ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण लाल रंग की होती हैं। ये प्राचीन चट्टानों के अपक्षय से बनती हैं और चाय, कॉफी और खट्टे फलों की खेती के लिए उपयुक्त हैं।
  • जलोढ़ मिट्टी: ये नदियों द्वारा जमा की गई मिट्टी हैं और बहुत उपजाऊ होती हैं। इनका उपयोग गेहूं, चावल, सब्जियों और फलों की खेती के लिए किया जाता है।

मृदा अपरदन और संरक्षण

मृदा अपरदन भूमि की सतह पर मिट्टी के कणों के छूटने और हवा, पानी या गुरुत्वाकर्षण के कारण उनके हटने की प्रक्रिया है। मृदा अपरदन कृषि भूमि की उर्वरता को कम कर सकता है, जिससे खाद्य उत्पादन कम हो जाता है। यह जलवायु परिवर्तन को भी बढ़ा सकता है।

मृदा अपरदन को रोकने के लिए कई उपाय किए जा सकते हैं, जैसे कि:

  • वनरोपण: पेड़ जमीन को बांधते हैं और हवा से मिट्टी के उड़ने से रोकते हैं।
  • फसल चक्र प्रणाली: विभिन्न फसलों को एक ही खेत में बारी-बारी से उगाने से मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने में मदद मिलती है।
  • टेरेसिंग: ढलानों पर बनी सीढ़ीदार खेत मिट्टी अपरदन को रोकने में मदद करते हैं।
  • संवर्धन कृषि: यह ऐसी कृषि पद्धति है जो मिट्टी के स्वास्थ्य को बनाए रखने पर ध्यान केंद्रित करती है। इसमें जैविक खाद का उपयोग, कम मिट्टी हवाने वाली तकनीकें और मृदा कटाव विरोधी उपाय शामिल हैं।

प्राकृतिक वनस्पति और वन्यजीव

प्राकृतिक वनस्पति और वन्यजीव by shalasaral

प्राकृतिक वनस्पति के प्रकार

पृथ्वी पर जलवायु, मिट्टी की गुणवत्ता, ऊंचाई और वर्षा जैसे कारकों के आधार पर विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक वनस्पति पाई जाती है। भारत में पाए जाने वाले कुछ प्रमुख प्रकारों में शामिल हैं:

  • वर्षावन: ये सदाबहार वन हैं जो अत्यधिक वर्षा वाले उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इन्हें उच्च जैव विविधता की विशेषता होती है। भारत में ये दक्षिण भारत के पश्चिमी घाटों और पूर्वोत्तर राज्यों में पाए जाते हैं।
  • पर्णपाती वन: ये वन समशीतोष्ण कटिबंध में पाए जाते हैं और गर्मियों में अपने पत्ते गिरा देते हैं। इनका उपयोग लकड़ी और जलावन के लिए किया जाता है। भारत में ये हिमालय के तलहटी क्षेत्रों और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में पाए जाते हैं।
  • मरुस्थलीय वनस्पति: ये शुष्क क्षेत्रों में पाए जाने वाले पौधे हैं जो पानी के संरक्षण के लिए अनुकूलित हैं। उनके पत्ते छोटे और मोमी होते हैं और जड़ें काफी लंबी होती हैं। भारत में ये थार मरुस्थल और राजस्थान के अन्य शुष्क क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
  • घास के मैदान: ये खुले घास के मैदान हैं जो कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इनका उपयोग चराई के लिए किया जाता है। भारत में ये गंगा की मैदानी और दक्कन के पठारों पर पाए जाते हैं।
  • मैंग्रोव वन: ये नमकीन पानी के तटों और नदी के मुहानों पर पाए जाने वाले पेड़ हैं। ये तटीय इलाकों को तूफानों और लहरों से बचाते हैं। भारत में ये सुंदरवन, गुजरात और आंध्र प्रदेश के तटों पर पाए जाते हैं।

वन और वन्यजीव संरक्षण

वन और वन्यजीव का संरक्षण हमारे पर्यावरण, अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक विरासत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। वन हमें ऑक्सीजन प्रदान करते हैं, मिट्टी के कटाव को रोकते हैं, जलवायु को नियंत्रित करते हैं और जैव विविधता को बनाए रखते हैं। वन्यजीव पारिस्थितिक तंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और कई पारंपरिक समुदायों के लिए आजीविका का स्रोत हैं।

वन और वन्यजीव संरक्षण के लिए कई उपाय किए जा सकते हैं, जैसे कि:

  • राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों का निर्माण: ये संरक्षित क्षेत्र वन्यजीवों के प्राकृतिक आवास को सुरक्षित रखते हैं।
  • वनरोपण और वनों का व्यावसायिक दोहन कम करना: पेड़ लगाने और अवैध कटाई को रोकने से वन कवर बढ़ाने में मदद मिलती है।
  • वन्यजीव अपराधों के खिलाफ सख्त कानून: शिकार और तस्करी पर रोक लगाने से वन्यजीवों की आबादी को बनाए रखने में मदद मिलती है।
  • पर्यावरण जागरूकता को बढ़ावा देना: लोगों को वनों और वन्यजीवों के महत्व के बारे में शिक्षित करना उन्हें संरक्षण में भाग लेने के लिए प्रेरित कर सकता है।

जैव विविधता और उसका संरक्षण

जैव विविधता पृथ्वी पर पौधों, जानवरों, सूक्ष्मजीवों और उनके पारिस्थितिक तंत्रों की सभी जीवन रूपों की विविधता है। यह स्वस्थ पारिस्थितिक तंत्रों और हमारे ग्रह पर जीवन के लिए आवश्यक है।

जैव विविधता के संरक्षण के लिए कई उपाय किए जा सकते हैं, जैसे कि:

  • संरक्षित क्षेत्रों का विस्तार करना: राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों के नेटवर्क को बढ़ाकर जैव विविधता संरक्षण के लिए अधिक क्षेत्र आवंटित किए जा सकते हैं।

जल संसाधन

जल संसाधन by shalasaral

जल स्रोत

पृथ्वी पर हमारा अधिकांश जल खारा है, केवल एक छोटा सा हिस्सा मीठा पानी है। मीठे पानी के मुख्य स्रोत हैं:

  • सतही जल: नदियां, झीलें, तालाब आदि।
  • भूजल: भूमि के नीचे पाया जाने वाला पानी।
  • हिमनद और ध्रुवीय बर्फ टोपियां: ये मीठे पानी के विशाल भंडार हैं, लेकिन दुनिया के कई हिस्सों में आसानी से पहुंच योग्य नहीं हैं।
  • वर्षा जल: वर्षा का संचयन भूजल के पुनर्भरण और कृषि के लिए महत्वपूर्ण है।

जल की कमी और जल संरक्षण एवं प्रबंधन की आवश्यकता

हालांकि पृथ्वी पर जल प्रचुर मात्रा में है, लेकिन मीठे पानी की कमी एक वैश्विक समस्या बनती जा रही है। इसके कई कारण हैं, जैसे कि जनसंख्या वृद्धि, जल प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और अत्यधिक जल उपयोग।

जल की कमी गंभीर समस्याएं पैदा कर सकती है, जैसे कि:

  • प्यास और पानी से होने वाली बीमारियां: स्वच्छ पेयजल की कमी लोगों के स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है।
  • खाद्य असुरक्षा: कृषि के लिए पानी आवश्यक है, इसलिए जल की कमी खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल सकती है।
  • पर्यावरणीय प्रभाव: जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिकी तंत्रों को नुकसान जल की कमी के प्रतिकूल प्रभाव हो सकते हैं।

जल संरक्षण और प्रबंधन की आवश्यकता समय की मांग है। हम कई तरीकों से पानी बचा सकते हैं, जैसे कि:

  • टपकने वाले नलों को ठीक करना और कम पानी निकालने वाले शौचालयों का उपयोग करना।
  • नहाने के बजाय स्नान करना और बर्तन धोने से पहले उन्हें भिगो देना।
  • बगीचों को कम बार सींचना और वर्षा जल का संचयन करना।
  • कृषि में जलवायु-स्मार्ट प्रथाओं को अपनाना, जैसे कि ड्रिप सिंचाई।
  • उद्योगों में जल पुनर्चक्रण और कम जल-गहन प्रक्रियाओं को अपनाना।

वर्षा जल संचयन

वर्षा जल संचयन वर्षा जल को इकट्ठा करने और इसे भविष्य में उपयोग करने की प्रथा है। यह सूखे के दौरान पानी की कमी को दूर करने और भूजल पुनर्भरण में मदद करने का एक प्रभावी तरीका है।

वर्षा जल संचयन के कई तरीके हैं, जैसे कि:

  • छतों से वर्षा जल को टैंकों में इकट्ठा करना।
  • भूमिगत गड्ढों का निर्माण करना।
  • तालाबों का निर्माण करना।

जल संसाधनों का संरक्षण और उनका बुद्धिमानी से उपयोग हमारे भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। हमें जल बचत की आदतें विकसित करनी चाहिए और वर्षा जल संचयन जैसी तकनीकों को अपनाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि हमारे पास पीने, सिंचाई और अन्य उद्देश्यों के लिए पर्याप्त स्वच्छ पानी उपलब्ध है।

खनिज संसाधन

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खनिजों के प्रकार

खनिज प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले अकार्बनिक पदार्थ हैं। उन्हें उनकी भौतिक और रासायनिक गुणों के आधार पर विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है, जिनमें शामिल हैं:

  • लोहाधातु खनिज: ये खनिज लोहे से बने होते हैं, जैसे लौह अयस्क, मैंगनीज, क्रोमियम आदि। ये धातु उद्योग के लिए कच्चा माल हैं।
  • अलोहधातु खनिज: इन खनिजों में लोहा नहीं होता है, जैसे बॉक्साइट (एल्यूमीनियम का स्रोत), जस्ता, सीसा, तांबा आदि। ये विभिन्न उद्योगों में उपयोग किए जाते हैं।
  • अभ्रक और अभ्रकीय खनिज: ये खनिज गर्मी और बिजली के अच्छे अवरोधक होते हैं। उनकी उच्च चमक और लोचदारता के कारण इनका उपयोग सौंदर्य प्रसाधन, पेंट और इलेक्ट्रॉनिक उद्योगों में किया जाता है।
  • ईंधन खनिज: ये खनिज जलकर ऊर्जा प्रदान करते हैं, जैसे कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस आदि।
  • अन्य खनिज: इसमें अभ्रक, फ्लोराइट, चूना पत्थर, संगमरमर, ग्रेफाइट आदि शामिल हैं, जिनका उपयोग निर्माण, रसायन विज्ञान, मिट्टी उर्वरक आदि विभिन्न उद्योगों में किया जाता है।

भारत में खनिजों का वितरण

भारत खनिज संसाधनों से समृद्ध देश है। खनिजों का वितरण पूरे देश में असमान है और विभिन्न भूवैज्ञानिक संरचनाओं पर निर्भर करता है। कुछ महत्वपूर्ण खनिज क्षेत्र हैं:

  • छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा में लौह अयस्क
  • मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गोवा में मैंगनीज
  • आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में अभ्रक
  • राजस्थान और गुजरात में लिग्नाइट
  • आसाम और गुजरात में पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस

सरकार लगातार नए खनिज भंडारों की खोज में लगी है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ये संसाधन भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी उपलब्ध रहें।

खनिजों का संरक्षण और उपयोग

खनिज गैर-नवीकरणीय संसाधन हैं, इसलिए उनका संरक्षण और बुद्धिमानी से उपयोग बहुत महत्वपूर्ण है। खनिज संरक्षण के कुछ उपाय हैं:

  • खनिजों का पुनर्चक्रण और पुनः उपयोग: पुराने उत्पादों से खनिजों को निकालकर उनके पुन: उपयोग को बढ़ावा देना।
  • खनिज के विकल्प ढूँढना: जहां संभव हो वहां अन्य सामग्री जैसे लकड़ी, प्लास्टिक या समग्र सामग्री का उपयोग करना।
  • खनन प्रथाओं में सुधार: कम से कम भूमि क्षति और प्रदूषण को सुनिश्चित करते हुए खनिजों का खनन करना।

यह भी महत्वपूर्ण है कि हम खनिजों का उपयोग सावधानी से करें और केवल तभी उनका उपयोग करें जब अन्य उपयुक्त विकल्प उपलब्ध न हों। हमें हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिए खनिजों पर निर्भरता को कम करने और अधिक टिकाऊ विकल्पों की ओर बढ़ने का प्रयास करना चाहिए।

ऊर्जा संसाधन

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हमारे जीवन और आधुनिक समाज के संचालन के लिए ऊर्जा बहुत ही आवश्यक है। ऊर्जा के कई अलग-अलग स्रोत हैं, जिन्हें मोटे तौर पर पारंपरिक और गैर-परंपरागत स्रोतों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

पारंपरिक ऊर्जा स्रोत

  • कोयला: पृथ्वी के नीचे दबे पौधों के अवशेषों से बना जीवाश्म ईंधन। इसका उपयोग बिजली उत्पादन, उद्योगों में ईंधन के रूप में और धातु शोधन में किया जाता है।
  • पेट्रोलियम: जीवाश्म ईंधन का तरल रूप। इसका उपयोग विभिन्न प्रकार के वाहनों को चलाने के लिए, बिजली उत्पादन में और प्लास्टिक, रसायन और अन्य उत्पादों को बनाने के लिए किया जाता है।
  • प्राकृतिक गैस: पृथ्वी के नीचे पाए जाने वाले हाइड्रोकार्बन गैसों का मिश्रण। इसका उपयोग बिजली उत्पादन, गृहस्थी ईंधन के रूप में और उद्योगों में किया जाता है।

पारंपरिक ऊर्जा स्रोत सस्ते और प्रचुर मात्रा में हैं, लेकिन उनके कई नुकसान भी हैं। ये सभी जीवाश्म ईंधन हैं, जिसका अर्थ है कि ये गैर-नवीकरणीय हैं और एक बार उपयोग करने के बाद इन्हें पुनः उत्पन्न नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा, वे जलते समय ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करते हैं, जो जलवायु परिवर्तन में योगदान करते हैं।

गैर-पारंपरिक ऊर्जा स्रोत

  • सौर ऊर्जा: सूर्य से आने वाली विकिरण का उपयोग करके बिजली पैदा करना। इसे सौर पैनलों के माध्यम से बिजली में या सौर ताप संग्राहकों के माध्यम से गर्मी में परिवर्तित किया जा सकता है।
  • पवन ऊर्जा: हवा के प्रवाह की गतिज ऊर्जा का उपयोग करके बिजली पैदा करना। पवन टर्बाइन हवा की ताकत से घूमती हैं और उस घूर्णन से बिजली उत्पन्न होती है।
  • जैवमास ऊर्जा: पेड़ों, पौधों और जानवरों के अपशिष्ट से प्राप्त जैविक पदार्थों को जलाकर बिजली पैदा करना। इसका उपयोग सीधे हीट और बिजली दोनों के लिए किया जा सकता है।

गैर-पारंपरिक ऊर्जा स्रोत नवीकरणीय और पर्यावरण के अनुकूल हैं। वे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन नहीं करते हैं और कभी खत्म नहीं होंगे। हालांकि, उनमें कुछ चुनौतियां भी हैं, जैसे कि प्रारंभिक निवेश की ऊंची लागत और मौसम पर निर्भरता।

ऊर्जा संरक्षण

ऊर्जा का बुद्धिमानी से उपयोग करना और बर्बादी को कम करना सबसे महत्वपूर्ण कदम है, चाहे वह पारंपरिक या गैर-पारंपरिक स्रोतों से हो। कुछ तरीके जिनसे हम ऊर्जा बचा सकते हैं, वे हैं:

  • लाइट बंद करके, उपकरणों को अनप्लग करके और हीटिंग और कूलिंग सेटिंग्स को समायोजित करके घर पर ऊर्जा का संरक्षण करना।
  • अधिक ऊर्जा-कुशल वाहन और उपकरणों का उपयोग करना।
  • कारपूलिंग, साइकिल चलाना या सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करके परिवहन में ऊर्जा खपत को कम करना।
  • उद्योगों और व्यवसायों को अपनी प्रक्रियाओं को अधिक ऊर्जा-कुशल बनाने के लिए प्रोत्साहित करना।

ऊर्जा संरक्षण न केवल पैसे बचा सकता है, बल्कि पर्यावरण की रक्षा में भी मदद कर सकता है। यह एक ऐसी चीज है जिसे हमें सभी को गंभीरता से लेना चाहिए।

भारतीय संदर्भ में योजना और सतत विकास

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पंचवर्षीय योजनाएँ और संसाधन विकास

  • भारत ने स्वतंत्रता के बाद आर्थिक विकास की तेज और नियोजित रणनीति के रूप में पंचवर्षीय योजनाओं को अपनाया।
  • इन योजनाओं का उद्देश्य कृषि, उद्योग, बुनियादी ढांचे और सामाजिक क्षेत्रों में संसाधनों का कुशल आवंटन करके आर्थिक विकास को बढ़ावा देना था।
  • शुरुआती योजनाओं ने बुनियादी ढांचे के विकास और औद्योगिकीकरण पर ध्यान केंद्रित किया।
  • बाद की योजनाओं में कृषि, ग्रामीण विकास, गरीबी उन्मूलन और पर्यावरण संरक्षण पर अधिक जोर दिया गया।

सतत विकास

  • सतत विकास (Sustainable Development) का अर्थ है विकास की ऐसी प्रक्रिया जो वर्तमान पीढ़ी की जरूरतों को पूरा करती है, भविष्य की पीढ़ियों के लिए जरूरतों को पूरा करने की क्षमता से समझौता किए बिना।
  • यह पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक स्थिरता को संतुलित करने के बारे में है।
  • भारत वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा अपनाए गए 17 सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को प्राप्त करने के लिए प्रतिबद्ध है।
  • इन लक्ष्यों में गरीबी उन्मूलन, भूख से मुक्ति, स्वास्थ्य देखभाल, साक्षरता, लैंगिक समानता, स्वच्छ ऊर्जा, सभ्य काम और जलवायु कार्रवाई शामिल हैं।

हालिया सरकारी पहल

  • सरकार कई पहल कर रही है, भारत को एक अधिक टिकाऊ भविष्य की ओर ले जाने के लिए, जिनमें शामिल हैं:
    • स्वच्छ भारत अभियान : स्वच्छता और स्वच्छ पर्यावरण को बढ़ावा देना।
    • आयुष्मान भारत : सस्ती और सुलभ स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करना।
    • ग्रीन ग्रिड मिशन : नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना।
    • स्मार्ट सिटी मिशन : टिकाऊ शहरी विकास को बढ़ावा देना।
    • जल जीवन मिशन : ग्रामीण क्षेत्रों में हर घर को नल से जल पहुंचाना।

इन पहलों का उद्देश्य भारत को आर्थिक और सामाजिक रूप से विकसित बनाना है, लेकिन पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना।

केस स्टडी: संरक्षण प्रथाओं और टिकाऊ संसाधन उपयोग में सफलता की कहानियां

संरक्षण प्रथाओं और टिकाऊ संसाधन उपयोग में सफलता की कहानियां

1. उत्तराखंड, हिमालय में चिपको आंदोलन (Chipko movement)

  • वर्ष 1970 के दशक में उत्तराखंड में वृक्षों को कटाई से बचाने के लिए महिलाओं द्वारा शुरू किया गया एक व्यापक सामाजिक-पर्यावरण आंदोलन।
  • महिलाएं पेड़ों से चिपक जाती थीं ताकि लकड़बग्घे उन्हें काट न सकें।
  • इस आंदोलन के परिणामस्वरूप सरकार को वनों की कटाई पर लगे प्रतिबंध में सुधार करना पड़ा।
  • चिपको आंदोलन एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि कैसे स्थानीय समुदाय अपने पर्यावरण की रक्षा के लिए सामूहिक कार्रवाई कर सकते हैं।

2. तमिलनाडु में वाटर हार्वेस्टिंग योजना (Water harvesting scheme in Tamil Nadu)

  • राज्य में सूखे की चुनौतियों से निपटने के लिए तमिलनाडु सरकार द्वारा शुरू की गई एक पहल।
  • इस योजना के तहत तालाबों, भूमिगत गड्ढों और अन्य संरचनाओं का निर्माण करके वर्षा जल को इकट्ठा किया जाता है।
  • इस पहल के कारण राज्य में भूजल स्तर में उल्लेखनीय सुधार हुआ है और कृषि उत्पादकता बढ़ी है।
  • यह दिखाता है कि सरकारी पहलें कैसे टिकाऊ जल प्रबंधन को बढ़ावा दे सकती हैं।

3. सिक्किम की जैविक खेती पहल (Sikkim’s organic farming initiative)

  • वर्ष 2016 में पूरे राज्य को 100% जैविक बनाने का लक्ष्य लेकर सिक्किम सरकार द्वारा शुरू की गई एक महत्वाकांक्षी योजना।
  • सरकार ने किसानों को जैविक कृषि प्रथाओं को अपनाने के लिए वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान की।
  • यह पहल मिट्टी की उर्वरता में सुधार करने, कीटनाशकों के उपयोग को कम करने और किसानों की आय बढ़ाने में सफल रही है।
  • यह दिखाता है कि राज्य स्तर पर भी टिकाऊ कृषि को व्यापक रूप से अपनाया जा सकता है।

4. अक्षय ऊर्जा में ग्रामीण भारत का नेतृत्व (Rural India leading in renewable energy)

  • पिछले कुछ वर्षों में, कई ग्रामीण भारतीय समुदायों ने सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा जैसे अक्षय ऊर्जा स्रोतों को अपनाया है।
  • इससे उन्हें पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों पर अपनी निर्भरता कम करने और बिजली बिलों को बचाने में मदद मिली है।
  • इन क्षेत्रों में अक्षय ऊर्जा की सफलता अन्य समुदायों के लिए एक उदाहरण है और ग्रामीण विकास में इसका व्यापक उपयोग करने की क्षमता को दर्शाता है।

यह कुछ उदाहरण हैं कि कैसे भारत में समुदाय और सरकारें संरक्षण प्रथाओं और टिकाऊ संसाधन उपयोग को अपनाकर सफलता प्राप्त कर रहे हैं। ये कहानियां हमें प्रेरित करती हैं कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना विकास संभव है, और यह कि हर कोई सकारात्मक प्रभाव डालने में भूमिका निभा सकता है।