पाप की जड़
एक समय की बात है, एक राज्य में राजा चंद्रभान राज्य करते थे। उनके पास एक बुद्धिमान मंत्री था जिसका नाम शूरसेन था। एक दिन राजा ने शूरसेन से पूछा कि पाप की जड़ क्या होती है? शूरसेन इस प्रश्न का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाया।
राजा ने कहा कि इस प्रश्न का सही उत्तर ढूंढने के लिए मैं तुम्हें एक माह का समय देता हूं। यदि दी गई अवधि में तुम सही उत्तर नहीं ढूंढ सके, तो मैं तुम्हें मंत्री पद से हटा दूंगा।
राजा की बात सुनकर शूरसेन परेशान हो गया। वह दिन-रात सोचता रहा, लेकिन उसे कोई उत्तर नहीं सूझा। वह गांव-गांव भटकने लगा, लेकिन उसे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो उसे इस प्रश्न का उत्तर दे सके।
एक दिन भटकते-भटकते शूरसेन एक जंगल में पहुंचा। वहां उसकी नजर एक साधु पर पड़ी। उसने साधु से राजा का प्रश्न पूछा। साधु ने कहा कि मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे सकता हूं, लेकिन इसके लिए तुम्हें मेरा एक काम करना होगा।
शूरसेन ने सोचा कि काम चाहे जो भी हो, कम से कम उत्तर तो मिल जाएगा। उसने साधु की बात मान ली। साधु ने कहा कि आज रात तुम्हें नगर सेठ की हत्या करनी होगी और साथ ही उसकी सारी संपत्ति चुरा कर मेरे पास लानी होगी।
शूरसेन लालच में आ गया। उसे अपना पद जो बचाना था। वह इसके लिए तैयार हो गया। उसे जाता देख साधु ने कहा कि एक बार फिर सोच लो। हत्या व चोरी करना पाप है।
शूरसेन ने कहा कि मैं किसी भी हाल में अपना पद बचाना चाहता हूं और इसके लिए मैं कोई भी पाप करने के लिए तैयार हूं।
यह सुनकर साधु ने कहा कि यही तुम्हारे सवाल का जवाब है। पाप की जड़ होती है- लोभ। पद के लोभ में आकर ही तुम हत्या और चोरी जैसा पाप करने के लिए तैयार हो गए। इसी के वशीभूत होकर व्यक्ति पाप कर्म करता है।
शूरसेन को साधु की बात समझ आ गई। उसने साधु से माफी मांगी और कहा कि वह ऐसा पाप नहीं करेगा।
दूसरे दिन शूरसेन ने राजा को साधु की बात बताई। राजा को शूरसेन की बात से बहुत प्रसन्नता हुई। उसने शूरसेन को मंत्री पद पर रहने दिया और उसे ढेर सारे स्वर्णाभूषण देकर सम्मानित किया।
शिक्षा:
लालच बुरी बला है। मनुष्य को लोभ-लालच से दूर रहना चाहिए। सदैव प्रसन्न रहिये – जो प्राप्त है, पर्याप्त है। जिसका मन मस्त है – उसके पास समस्त है।।
सारांश:
राजा चंद्रभान ने अपने मंत्री शूरसेन से पाप की जड़ के बारे में पूछा। शूरसेन इस प्रश्न का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाया। राजा ने उसे एक माह का समय दिया। शूरसेन जंगल में भटकते हुए एक साधु से मिला। साधु ने शूरसेन को बताया कि पाप की जड़ लोभ है। शूरसेन ने साधु की बात मान ली और लालच से दूर रहने का संकल्प लिया। राजा को शूरसेन की बात से प्रसन्नता हुई और उसने उसे मंत्री पद पर रहने दिया।
शिक्षा:
लालच बुरी बला है। मनुष्य को लोभ-लालच से दूर रहना चाहिए। सदैव प्रसन्न रहिये – जो प्राप्त है, पर्याप्त है। जिसका मन मस्त है – उसके पास समस्त है।।
उपसंहार:
इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें लालच से दूर रहना चाहिए। लालच के वशीभूत होकर व्यक्ति पाप कर्म करता है।