
विद्या + आलय = विद्यालय। विद्यालय शब्द दो शब्दों -विद्या+आलय से मिलकर बना है जिसका अर्थ है विद्या देने का स्थान। विद्यालय विद्या का आलय है, ज्ञान का भवन है। यहाँ अज्ञान का अन्धकार ज्ञान सूत्र के उजाले से विलीन हो जाता है। सामान्य भाषा मे ” विद्यालय वह स्थल है जहाँ शिक्षा प्रदान की जाती है।”
विद्यालय के शाब्दिक अर्थ को समझने के लिए हमको विद्या व आलय दोनो शब्दों का अर्थ समझना होगा। विद्या से आशय होता है कि विद्या वो जानकारी और गुण है जिसे हम देखने-दिखाने, सुनने-सुनाने, या पढ़ने-पढ़ाने (शिक्षा) के माध्यम से प्राप्त करते हैं । हमारे जीवन के शुरुआत में हम सब जीना सीखते है । जीवन जीना सीखने के बाद जीवन को निरन्तर रखने व इस हेतु आवश्यक संसाधनों की प्राप्ति करना सीखते है। “आलय” शब्द से आशय मनुष्यों द्वारा छाया किया हुआ वह स्थान होता है जिसे दीवारों से घेरकर रहने के लिए बनाया जाता है।
सामान्य शब्दो मे हम विद्यालय की परिभाषा निम्नलिखित रूप से समझ सकते है।
विद्यालय की परिभाषा व अर्थ
“विद्यालय वह स्थान है, जहाँ विद्यार्थियों द्वारा शिक्षा ग्रहण की जाती है।”
“विद्यालय एक ऐसी संस्था है, जहाँ बच्चों के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं नैतिक गुणों का विकास होता है।”
“विद्यालय एक ऐसा विशिष्ट पर्यावरण है जहाँ जीवन के निश्चित गुण और विशेष प्रकार की क्रियाओं और व्यवसायों की शिक्षा इस उद्देश्य से दी जाती है कि बालक का विकास वांछित दिशा में हो।” जॉन डीवी
“विद्यालय समाज के युवकों को विशेष प्रकार की शिक्षा देने वाले सामाजिक आविष्कार के रूप में समझे जा सकते हैं।” ओटावे
सरल भाषा मे हम कह सकते है कि
विद्यालय विद्या का भंडार है। विद्यालय एक ऐसा स्थान है जहां अध्ययन-अध्यापन के द्वारा बच्चों को शिक्षा प्रदान की जाती है। विद्यालय से ही अध्ययन शुरू कर के बच्चें अपने भविष्य को तय करते है।
विद्यालय (School, स्कूल) शब्द का मूल अर्थ
विद्यालय’ शब्द के लिए आंग्ल भाषा में ‘School‘ शब्द का प्रयोग होता है, जिसकी उत्पत्ति ग्रीक शब्द ‘Skohla‘ या ‘Skhole‘ से हुई है, जिससे तात्पर्य है- ‘अवकाश‘। यह अर्थ कुछ विचित्र – सा लगता है। इस सम्बंध में वास्तविकता यह है कि प्राचीन यूनान में अवकाश के स्थलों को ही विद्यालय के नाम से संबोधित किया जाता था। अवकाश काल को ही ‘आत्म -विकास’ का समय समझा जाता था। जिसका अभ्यास अवकाश नाम निश्चित स्थान पर किया जाता था। धीरे-धीरे यह अवकाश स्थल एक निश्चित उद्देश्य तथा पाठ्यक्रम का ज्ञान प्रदान करने वाली संस्थाएं अर्थात स्कूल बन गए। इसी बात को हम पुनः समझने का प्रयास करते है।
जैसा कि हम पहले ही समझ चुके है कि विद्यालय “आत्म- विकास” के स्थान है। आत्म विकास कब होता है? आत्म विकास तब होगा जब आदमी जिंदगी जीने के प्रमुख आवश्यकता में व्यस्त नही हो। जीवन की प्रमुख आवश्यकता क्या होती है? यह निम्नलिखित है-
- भोजन, भरण-पोषण
- जीवन की बेसिक आवश्यकता जैसे सुरक्षा, मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था इत्यादि
प्राचीन काल मे मनुष्य जीवन उपरोक्त आवश्यकताओं की पूर्ति में ही कट जाता होगा। जब ये मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होती है तब मनुष्य द्वारा ” आत्म-विकास ” की बात सोची जाती होगी। जब मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाये यानी जब अवकाश मिले तब आत्म-विकास हेतु स्कूल की आवश्यकता अनुभूति होती थी।
भारत मे विद्यालय को गुरुकुल कहा जाता था
भारतीय संस्कृति अत्यंत प्राचीन है। भारत मे भी “आत्म-विकास” हेतु प्रयास थे। ऐसे प्रयास जब सामुहिक व औपचारिक रूप से होते थे तो जिस स्थान पर होते उन्हें हम गुरुकुल कहते थे। सदियों से हमारा देश ज्ञान का स्रोत रहा है। हमारे यहां आदिकाल से ही गुरुकुल परंपरा रही है। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी अपना राजसी वैभव छोड़कर ज्ञान-प्राप्ति के लिए गुरुकुल जाते थे।
प्राचीन भारत में विद्यालय गुरुकुल के रूप में होते थें। ये अक्सर गुरु के घर या किसी मठ में होते थें।भारतीय परम्परा व संस्कृति में विद्या को देवी का स्थान दिया गया है और विद्यालय को ‘मंदिर’ का दर्जा दिया गया है।
भारत मे मुग़ल काल के विद्यालयों को मदरसा कहते थे।
मुग़लों के ज़माने में, बच्चों को शिक्षित करने के लिये ‘मदरसों’ का आरम्भ किया गया था। ऊर्दू भाषा मे मदरसे से अर्थ एक विद्यालय से ही होता है। इन मदरसों में औपचारिक शिक्षा के साथ धार्मिक शिक्षा को भी महत्व दिया जाता था।
भारत मे ब्रिटिश काल मे विद्यालय स्कूल नाम से सम्बोधित होते थे।
अंग्रेज़ी दस्तावेज़ों के अनुसार, १८वीं सदी में देश में विद्यालय सामान्य रूप से स्थापित होते थें। पूरे देश में मंदिर, मस्जिद और गांव में एक विद्यालय का होना सामान्य था। इनमें पढ़ना, लिखना, धर्मशास्त्र, क़ानून, खगोल/एस्ट्रोनॉमी, आचार-विचार, जीव, चिकित्सा विज्ञान और धर्म के बारे में सिखाया जाता था।
ब्रिटिश साम्राज्य में इंग्लैंड, अमरीका और भिन्न देशों से क्रिश्चियन मिशनरियों ने, मिशनरी और आवासीय विद्यालय खोले थें। जैसे ये प्रसिद्ध हुए, तो कुछ विद्यालय खोले गए, और कुछ विद्यालयों को सम्मान भी मिला। आज ज़्दायातर विद्यालयों में पढ़ाई-लिखाई के दौरान अनुशासन और पाठ्यक्रमों में अंग्रेज़ी नियमों का पालन किया जाता है। आज भारत में कई शिक्षा बोर्ड/मंडल हैं। उदाहरण स्वरूप: केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, सी.आइ.सी.एस.सी व अन्य स्टेट/राज्य के बोर्ड आदि। आजकल सामान्य रूप से भाषा, गणित, विज्ञान, भौतिकी/फिज़िक्स, रसायनी/केमिस्ट्री, जीव विज्ञान, भूगोल/जियोग्राफी, इतिहास, सामान्य ज्ञान, कंप्यूटर विज्ञान सिखाए जाते हैं। इसके अलावा स्कूलों में खेल कूद, गाना, चित्रकारी व नाटक भी होते हैं।
आधुनिक विद्यालय की विशेषता
- विद्यालयों में शांत वातावरण होना चाहिए।
- विद्यालयों में ट्रेंड टीचर्स होने चाहिए।
- विद्यालयों का बोर्ड परीक्षाओं में श्रेष्ठ प्रदर्शन होना चाहिए।
- विद्यालयों में नियमित प्रतिदिन गृह कार्य दिया जाना चाहिए।
- विद्यालयों में छात्र/छात्राओं के मूल्यांकन हेतु सतत मूल्यांकन पद्धति अपनायी जानी चाहिए।
- विद्यालयों में स्वाध्याय हेतु एक पुस्तकालय एवं वाचनालय विभाग होना चाहिए।
- विद्यालयों में अतिरिक्त पाठ्येतर गतिविधि पर ध्यान देना चाहिए ।
- विद्यालयों में विभिन्न विषयों में प्रतियोगी परीक्षाओं की व्यवस्था होनी चाहिए।
- विद्यालयों में अध्यापन हेतु कक्ष विशाल और हवादार होने चाहिए। जिससे विद्यार्थी का पढाई में मन लग सके।
- विद्यालयों में शीतल पेय जल की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए । उसके आस-पास का जगह साफ़ सुधरा रहना चाहिए जिससे बीमारी न फ़ैल सके।
- विद्यालयों में समुचित शौचालयों का प्रबंध होना चाहिए । शौचालय प्रतिदिन साफ़ करना चाहिए।
- विद्यालयों में शारीरिक, योग, नृत्य एवं संगीत शिक्षा की उचित व्यवस्था होनी चाहिए । जिससे विद्यार्थी अन्य कार्य में भी तेज़ हो सके।
- विद्यालयों में छात्रो की अंतः क्रियाओं एवं मानसिक विकास हेतु वाद-विवाद प्रतियोगिता आदि कराना चाहिए। जिससे उनका मानसिक विकास बढ़ते रहे।
- विद्यालयों की वार्षिक पत्रिका छपनी चाहिए, जिसमें हर क्षेत्र के मेधावी बच्चों का उल्लेख होना चाहिए।
- विद्यालयों में सभी कक्षाओं में स्मार्ट कक्षा की व्यवस्था होना चाहिए । जिससे उन्हें पढाई में आसानी होगी और डिजिटल शिक्षा का ज्ञान प्राप्त होगा।