वीरों की भूमि, जालौर: कान्हड़देव और वीरमदेव की अमर गाथा
राजस्थान की धरती पर शौर्य की अनगिनत कथाएं अंकित हैं। इन्हीं में से एक है जालौर के अदम्य साहस और बलिदान की कहानी – जहां के वीर योद्धाओं ने खिलजी की क्रूर सेना को धूल चटाई थी।
12वीं शताब्दी का जालौर
समय चलता है 12वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में। जालौर का किला अपने वैभव पर है। चौहान वंश के राजा कान्हड़देव की कीर्ति चारों ओर फैली हुई है। उनके कुशल नेतृत्व में जालौर समृद्धि की नई ऊंचाइयां छू रहा है। राजा कान्हड़देव का पुत्र विरमदेव अपने अतुलनीय बल और युद्ध कौशल के लिए प्रसिद्ध है।
खिलजी का अत्याचार
इसी समय क्षितिज पर एक काला साया मंडराता है – दिल्ली का क्रूर सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी। उसकी लोभी निगाहें गुजरात की संपदा पर हैं। गुजरात को रौंदता हुआ, सोमनाथ मंदिर को लूटता हुआ, वह राजपूताने की ओर बढ़ता है। उसकी सेना के आगे हिंदुओं का कत्लेआम होता है, स्त्रियों का अपमान होता है। लूटपाट का तांडव मचता है।
कान्हड़देव का संदेश
जब यह खबर जालौर के राजा कान्हड़देव के कानों तक पहुंचती है, उनका रक्त खौल उठता है। वे तुरंत अपने चार वीर राजपूत सरदारों को खिलजी के पास बुलाते हैं।
“इसे हमारे संदेशवाहक बनकर जाओ,” कान्हड़देव आदेश देते हैं, “इस क्रूर सुल्तान से कहो कि एक भी हिंदू की हत्या, सोमनाथ महादेव का अपमान, और इस धरती पर अत्याचार किसी भी कीमत पर सहन नहीं किया जाएगा। और हां, उसे बताना कि उसने अगर राजपूताने का मुंह देखना है तो जालौर पार करके दिखाए!”
कांधल का पराक्रम
खिलजी, अपने विशाल डेरे में, राजपूत संदेश सुनकर क्रोध से भर जाता है। अपने वजीर के समझाने के बावजूद वह राजपूतों को झुकने पर मजबूर करना चाहता है। वह जालौर के राजपूत कांधल, जो अपने साथियों के साथ उसके दरबार में खड़ा है, को चुनौती देता है।
“तुम्हारे राजा ने बड़ी-बड़ी बातें लिख भेजी हैं। क्या तुम अपने बल और युद्ध कौशल से मुझे प्रभावित कर सकते हो?” खिलजी व्यंग्य से पूछता है।
कांधल बिना कोई शब्द कहे, दरबार से बाहर निकलता है। कुछ ही समय में वह एक विशालकाय भैंसे को खींचते हुए दरबार में वापस दाखिल होता है। एक ही झटके में, अपनी तलवार से, वह भैंसे को दो टुकड़ों में चीर देता है।
खिलजी और उसके दरबारी सन्न रह जाते हैं। वजीर फुसफुसाता है, “ये तो जालौर के राजा के सबसे साधारण सैनिक हैं! सोचिए खुद राजा की शक्ति क्या होगी…”
जालौर की सेना का आक्रमण
बाद में रात के अंधेरे में, कान्हड़देव अपनी सेना को लेकर खिलजी के डेरे पर टूट पड़ते हैं। खिलजी की सेना में भगदड़ मच जाती है। सोमनाथ ज्योतिर्लिंग को छुड़ाकर राजपूत वापस जालौर लौटते हैं और उसे मकराना गांव में फिर से स्थापित कर देते हैं।
खिलजी का प्रतिशोध
यह हार खिलजी के लिए एक व्यक्तिगत अपमान है। वह वीरमदेव, जिनकी वीरता के किस्से उसके कानों तक भी पहुंचे हैं, को अपनी पुत्री फिरोजा का विवाह प्रस्ताव भेजता है। कान्हड़देव और उनके सरदार जानते हैं कि यह एक छल है।
वीरमदेव दिल्ली पहुंचते हैं। विवाह की तैयारियों की आड़ में, वे खिलजी को चकमा देकर जालौर लौट आते हैं। खिलजी का क्रोध भड़क उठता है। अब वह जालौर को मिट्टी में मिलाने की कसम खाता है।
सिवाना का पतन और कान्हड़देव की शहादत
पांच सालों तक जालौर खिलजी के हमलों को बहादुरी से झेलता रहता है। पर आखिरकार, जून 1310 में, खिलजी स्वयं अपनी विशाल सेना के साथ जालौर की ओर बढ़ता है। पहले वह मार्ग में आने वाले सिवाना किले को अपने कब्जे में लेता है। एक विश्वासघाती के द्वारा, उसने सिवाना के जल स्रोतों में गौ-रक्त मिलाने का कुकृत्य करवाया। सिवाना के राजा, सातलदेव और उनकी रानियां अंतिम सांस तक लड़ते हैं, और अंत में शत्रु से अपमान नहीं सहन करने के लिए जौहर की ज्वालाओं को चुनती हैं।
खिलजी का अगला निशाना जालौर होता है। एक भयानक युद्ध छिड़ता है। कान्हड़देव भीषण युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त होते हैं।
वीरमदेव की वीरता
बादशाह की सेना को भारी पड़ते देख, विरमदेव सिंहासन ग्रहण करते हैं। वे लगातार दुश्मन सेना से लोहा लेते रहते हैं। लेकिन एक दिन, जालौर का एक सरदार, विका, शत्रु से जा मिलता है। वह खिलजी की सेना को किले के एक असुरक्षित हिस्से का राज बता देता है।
वीरमदेव भी खिलजी की विशाल सेना को नहीं रोक पाते। वह महल में घुसने से पहले ही शाका (अंतिम युद्ध लड़ते हुए वीरगति प्राप्त करने का प्रण ) के लिए तैयार हो जाते हैं। महल की रानियां आत्मसम्मान की रक्षा के लिए जौहर की ज्वालाओं में समा जाती हैं।
अंत में, किले के द्वार खोलकर वीरमदेव युद्धभूमि में कूद पड़ते हैं। अदम्य साहस से लड़ते हुए, वे भी अंत में वीरगति को प्राप्त होते हैं।
फिरोजा की दुखद नियति
कहते हैं, जब सोने की थाल में सजा कर वीरमदेव का शीश लाया जाता है, फिरोजा के सामने, तो वह चमत्कारिक रूप से उलट जाता है। फिरोजा अपने पूर्वजन्म की कथा सुनाती है और यमुना में समा कर अपना जीवन समाप्त कर लेती है।
अमर बलिदान की गाथा
इतिहास इस साहस और बलिदान को कभी नहीं भुलाएगा। वीरमदेव, कान्हड़देव, जालौर और सिवाना की रानियां भारत के शौर्य के अमर प्रतीकों के रूप में हमेशा हमारे ह्रदय में विराजमान रहेंगे।
कान्हड़देव कहाँ का शासक था?
कान्हड़देव (शासनकाल 1296-1316 ई) भारत के [चहमान(चौहान)राजवंश] के एक राजा थे जिन्होने जवालिपुर (आज के [जालौर]) के आसपास के क्षेत्रों पर शासन किया।
जालौर शासक कन्नड़ देव और सुल्तान अलाउद्दीन के बीच प्रथम संघर्ष कब हुआ था?
पहली लड़ाई जालोर के राजा कान्हड़देव और सुल्तान अलाउद्दीन के बीच 1305 में लड़ी गई थी और 1314 तक चली थी।
वीरमदेव (मृत्यु 1311) जालोर चहमान राजा कान्हड़ देव के पुत्र थे। अलाउद्दीन खिलजी की जालौर पर विजय दौरान उन्हें ताज पहनाया गया था, और ढाई दिन संघर्ष करते हुए अन्त में वीरगति को प्राप्त हो गए थे।