सत्यं वद धर्मं चर
सत्य बोलो। धर्म सम्मत कर्म करो।
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता ॥
हरि (श्रीराम) अनंत हैं और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं।
सत्संगत्वे निस्संगत्वं, निश्चलतत्त्वं, निस्संगत्वे निर्मोहत्वं । निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥
सत्संग से वैराग्य, वैराग्य से विवेक, विवेक से स्थिर तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् । वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः ॥
जो समुद्र के उत्तर तथा हिमालय से दक्षिण में स्थित है वही भारतवर्ष है और वहीं पर चक्रवर्ती भरत जी की संतति, भारती निवास करती है।
प्रथमे नार्जिता विद्या, द्वितीये नार्जितं धनम् । तृतीये नार्जितं पुण्यं, चतुर्थे किं करिष्यति ॥
मनुष्य के जीवन में चार आश्रम होते हैं। जिसने पहले तीन आश्रमों (ब्रह्मचर्य/विद्या, गृहस्थ, वानप्रस्थ) में निर्धारित कर्तव्य का पालन किया, उसे चौथे आश्रम में मोक्ष के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता है।
तत्कर्म यन्न बंधाय, सा विद्या या विमुक्तये।
कर्म वही है, जो बंधन में ना बांधे, विद्या वही है जो मुक्त करे।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण देता है, दूसरे मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करते हैं।
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति। तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।
जो-जो भक्त जिस-जिस देवता का श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है, उस-उस देवता के प्रति मैं उसकी श्रद्धा को दृढ़ कर देता हूँ।
विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय, लम्बोदराय सकलाय जगद्धिताय ।
नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय, गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते ।।
विघ्नेश्वर, वर देनेवाले, देवताओं को प्रिय, लम्बोदर, कलाओं से परिपूर्ण, जगत् का हित करनेवाले, गज के समान मुख वाले और वेद तथा यज्ञ से विभूषित पार्वती पुत्र को नमस्कार है; हे गणनाथ! आपको नमस्कार है।
परेषां सद्गुणे दृष्टिःस्वस्य तु दुर्गुणे तथा । द्वारमुद्घाटयत्येषा जीवने प्रोन्नतेस्सदा ॥
दूसरों के सगुण और अपने दुर्गुणों को देखने से उन्नति का द्वार खुलता है। अपने गुण ही दिखाई दे और अन्य के दोष, तब आदमी अवनति की ओर जाता है।
ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय।
हे ईश्वर! (हमको)
असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।
मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्। आत्मवत् सर्वभूतेषु, यः पश्यति सः पण्डितः।
जो दूसरों की पत्नी को माता तथा दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले की भांति समझता हो। जो संसार के सभी प्राणियों में अपनी आत्मा का दर्शन करता हो अर्थात् सबको अपना मानता हो, वही ज्ञानी है।
कराग्रे वसते लक्ष्मीः, करमध्ये सरस्वती । करमूले स्थितो ब्रह्मा, प्रभाते करदर्शनम् ॥
हथेली के अग्रभाग में माता लक्ष्मी का निवास है, मध्यभाग में माता सरस्वती का और हथेली के मूल भाग में ब्रह्मा जी निवास करते हैं, इसलिए प्रभात में अपनी दोनों हथेलियों का दर्शन करना चाहिए।
यन्त्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
जहाँ नारी का सम्मान, वहाँ दिव्यता का वास।
मोर मनोरथु जानहु नीके। बसहु सदा उर पुर सबही के ॥ कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे वैदेहीं ॥
मेरे मनोरथ को आप भली-भाँति जानती हैं; क्योंकि आप सदा सबके हृदयरूपी नगरी में निवास करती हैं। इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर जानकी जी ने मां गौरी के चरण पकड़ लिए।
सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी ।। नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहि मनु राचा ।।
हे सीता! हमारी सच्ची आसीस सुनो, तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी। नारद का वचन सदा
पवित्र और सत्य है। जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही वर तुमको मिलेगा।
अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्नं नैव च नैव च।
अजापुत्रं बलिं दद्यात् देवो दुर्बल घातकः ।॥
न तो अश्व, गज, बाघ और न किसी और को ही कभी बलि चढ़ाया जाता है। बलि चढ़ाया जाता है तो बेचारे बकरी के बच्चे को। ।। दुर्बल के लिए तो देव भी घातक सिद्ध हो सकते हैं। दुर्बलता त्याग कर शक्तिशाली बनो वरना बलि चढ़ना तय है।
परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाही।
जिनके मन में दूसरे का हित बसता है, उनके लिए जगत् में कुछ भी दुर्लभ नही है।
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यम् ॥
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानम् ॥ प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥
न तो योग जानता हूँ, न जप और न ही पूजा। हे शम्भो! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभी। वृद्धावस्था तथा जन्म, मृत्यु के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखी की दुःख से रक्षा कीजिए। हे ईश्वर! हे शम्भो! मैं आपको नमस्कार करता है।
ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् । नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ॥
है कुद्ध एवं शूर-वीर महाविष्णु, आपकी ज्याला एवं ताप चारों दिशाओं में फैली हुई है। हे नरसिंहदेव प्रभु, आपका चेहरा सर्वव्यापी है, आप मृत्यु के भी यम हो और मैं आपके समक्ष आत्मसमर्पण करता हूँ।
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च। अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।। 16.4।1
हे पार्थ! दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोर वाणी और अज्ञान यह सब आसुरी सम्पदा है।
विक्रम संवत् २०८१
मान्धाता, सेतुनिर्माण, और दसमुख वध: सतयुग के अलंकार
मान्धाता च महीपतिः कृतयुगालंकार भूतो गतः। सेतुर्येन महोदधौ विरचितः क्वासौ दशास्यान्तकः॥ अन्ये चापि युधिष्ठिर प्रभृतयो याता दिवम् भूपते। नैकेनापि समम् गता वसुमती नूनम् त्वया यास्यति॥
सतयुग के अलंकार मान्धाता, समुद्र पर सेतु का निर्माण और दसमुख का वध करने वाले श्री राम और युधिष्ठिर जैसे सत्यवादी सम्राट धरती पर आये और चले गये। हे मुञ्ज! यह धरती किसी एक के भी साथ नहीं गयी, तो क्या तुम्हारे साथ जायेगी? नहीं!